SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [१०७ निदर्शना जहाँ दो वस्तुओं का पारस्परिक सम्बन्ध उपपन्न नहीं होने पर उनमें उपमानोपमेय भाव की कल्पना से उपपत्ति सिद्ध हो वहां निदर्शना या विदर्शना नामक अलङ्कार उद्भट ने माना है। इसके दो भेद सम्भव हैं—(क) जहाँ वस्तुओं का मुख्य सम्बन्ध असम्भव हो तथा (ख) जहाँ वह सम्बन्ध सम्भव हो।' स्पष्टतः उद्भट ने भामह, आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की निदर्शना-धारणा को अस्वीकार कर उसकी नवीन परिभाषा की कल्पना की है। उद्भट की रचना में निदर्शना के स्थान पर कहां-कहीं विदर्शना पाठ भी पाया जाता है । प्रतिहारेन्दुराज ने, 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' के विवरण में विदर्शना पाठ मान कर उसकी अन्वर्था संज्ञा सिद्ध करने के लिए यह मान्यता व्यक्त की है कि चूकि इसमें उपमानोपमेय भाव-रूप विशिष्ट अर्थ के दर्शन होते हैं, इसलिए इसे विदर्शना कहा गया है। २ तिलक की विवृति में निदर्शना पाठ ही स्वीकृत है। मेरी सम्मति में प्रस्तुत अलङ्कार के व्यपदेश को भामह आदि के द्वारा अनिर्दिष्ट तथा उद्भट के द्वारा उद्भावित मानना युक्तिसंगत नहीं। भामह की निदर्शना संज्ञा ही कुछ परिवर्तन से विदर्शना के रूप में भी व्यवहृत हो गयी होगी। अतः प्रस्तुत अलङ्कार का स्वरूप-मात्र नवीन है, अभिधान प्राचीन । निदर्शना की रूपरचना में भरत के युक्ति-लक्षण तथा उपमा अलङ्कार के विधायक तत्त्वों का योगदान है। भरत ने युक्ति लक्षण की परिभाषा में कहा है कि इसमें उत्कृष्ट वस्तु के साथ परस्पर अनुकूलता से उपलक्षित समवाय से अन्य वस्तु का सम्बन्ध सिद्ध किया जाता है।४ निदर्शना अलङ्कार में वस्तुओं का सम्बन्ध उनमें उपमानोपमेय भाव की कल्पना से सिद्ध किया जाता है। १. अभवन्वस्तुसम्बन्धो भवन्वा यत्र कल्पयेत् । उपमानोपमेयत्वं कथ्यते सा निदर्शना ॥ -उद्भट, काव्यालं० सा० सं० ५, १८: २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह । -५,१८ पर प्रतिहारेन्दु का विवरण ।' ३. द्रष्टव्य-काव्यालं० सार सं०, विवृति, पृ० ४५ । ४. साध्यते योऽर्थसंबन्धो महद्भिः समवायतः । परस्परानुकूल्येन सा युक्तिः परिकीर्तिता ॥ -भरत, ना० शा०, १६, ३६.
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy