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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
की अनुत्पत्ति दिखाई गई है ।' भरत ने यद्यपि हेतु के सद्भाव में कार्य के अभाव की उक्ति के चमत्कार पर विचार नहीं किया है, तथापि इसका सङ्कत उनकी क्षमा लक्षण-परिभाषा में उपलभ्य है। क्रोध के हेतु के होने पर भी अक्रोध की दशा में उन्होंने क्षमा नामक लक्षण स्वीकार किया है ।२ भरत के उक्त लक्षण तथा भामह के विशेषोक्ति अलङ्कार के उदाहरण से उद्भट को विशेषोक्ति के उक्त स्वरूप की कल्पना की प्रेरणा मिली होगी।
व्याजस्तुति __जिस उक्ति में आपाततः किसी की निन्दा-सी जान पड़े किन्तु वस्तुतः उसमें उसकी स्तुति निहित हो वहाँ उद्भट ने व्याजस्तुति अलङ्कार माना है । इसमें प्रातिभासिक निन्दा शाब्द तथा वास्तविक स्तुति आर्थ होती है। प्रस्तुत अलङ्कार के सदृश स्वरूप की कल्पना नाट्याचार्य भरत ने कार्य-लक्षण के स्वरूप-विवेचन के क्रम में की थी। उन्होंने कार्य के दो भेदों की कल्पना की। एक में दोष का शब्दतः कथन कर उसमें अर्थतः गुण की योजना की जाती है और दूसरे में इसके विपरीत गुण-कथन में दोष की व्यञ्जना होती है। कार्य के प्रथम भेद से उद्भट की व्याजस्तुति की प्रकृति अभिन्न है।
१. स एकस्त्रीणि जयति जगन्ति कुसुमायुधः । हरतापि तनु यस्य शम्भुना न हृतं बलम् ॥
–भामह, काव्यालं० ३,२४. २. अक्रोधः क्रोधजननक्यिर्यः सा क्षमा भवेत् ।।
-भरत, ना० शा०, १६,३१ ३. शब्दशक्तिस्वभावेन यत्र निन्दैव गम्यते । वस्तुतस्तु स्तुतिश्चेष्टा व्याजस्तुतिरसौ मता ॥
-उद्भट, काव्यलं० सार सं०, ५, १६ ४. यत्र संकीर्तयन् दोषं गुणमर्थेन योजयेत् । (यत्र-संकीर्तयन् दोषं, यत्र संकीयं दोषांस्तु तथा यत्रापसारयन्दोषं
पाठभेद उपलब्ध हैं।) . गुणाभिवादं दोषाद्वा कार्य तल्लक्षणं विदुः ॥ .....
-भरत ना० शा० १६,३७