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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १०५ है कि न केवल 'नाट्यशास्त्र' के लक्षण, गुण तथा अलङ्कार ने उत्तरकाल में अलङ्कार की संख्या-वृद्धि में योग दिया वरन् उसकी रस-भाव आदि की धारणा के आधार पर भी अनेक अलङ्कारों की सृष्टि हुई। तुल्ययोगिता उद्भट ने भामह तथा दण्डी के तुल्ययोगिता-लक्षण को अस्वीकार कर उसके नवीन स्वरूप की कल्पना की है। उनके अनुसार दो अप्रस्तुत पदार्थों अथवा दो प्रस्तुत पदार्थों में जहाँ समता का वर्णन होता है वहाँ तुल्ययोगितानामक अलङ्कार होता है। इसमें वर्णित वस्तुओं में परस्पर उपमानोपमेय 'भाव-सम्बन्ध नहीं रहा करता। भरत ने सिद्धि-लक्षण में अनेक प्रसिद्ध वस्तुओं के बीच साधारण्य की सिद्धि के लिए किसी अप्रसिद्ध वस्तु का वर्णन वाञ्छनीय माना है। इस लक्षण में वर्णित वस्तुओं में उपमानोपमेय-भाव नहीं रहता, केवल उनकी समता की सिद्धि होती है। तुल्ययोगिता अलङ्कार की कल्पना का मूल-स्रोत उक्त लक्षण को माना जा सकता है। अभिनवगुप्त ने सिद्धि से ही तुल्ययोगिता का उद्भव स्वीकार किया है । विशेषाक्ति ___ फलोत्पत्ति के हेतु के रहने पर भी फल की अनुत्पत्ति के वर्णन से जहाँ उक्ति में वैशिष्टय आता है, ऐसे स्थल में उद्भट ने विशेषोक्ति अलङ्कार का सद्भाव माना है। कारण के उक्त तथा अनुक्त होने के आधार पर उसके दो भेद स्वीकार किये गये हैं। विशेषोक्ति का यह लक्षण भामह तथा दण्डी के लक्षण से भिन्न तथा अधिक परिष्कृत है। भामह ने विशेषोक्ति का जो उदाहरण दिया है उसमें शम्भु के द्वारा कामदेव के शरीर के विनष्ट किये जाने से उसके बलापहरण के अविकल हेतु के होने पर भी बलापहरण-रूप कार्य १. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ५, ११ २. बहूनां च प्रधानानां मध्ये यन्नाम कीर्त्यते । एकार्थसाधनकृतं सा सिद्धिरिति कीर्तिता ।। ....-भस्त, ना. शा०, १६, १७ ... ३. द्रष्टव्य-उद्भर, काव्यालं० सार० सं०, ५, ५-६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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