SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 647
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण दण्डी आदि ने माना है । कुन्तक ने आनन्दवर्धन के रसवत् - लक्षण का भी खण्डन करने का प्रयास किया है। उनका तर्क 'रसवत् अलङ्कार' शब्द के व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ पर आधृत है । उनकी मान्यता है कि षष्ठी समास से रसवान का अलङ्कार रसवत् को मान सकते हैं । विशेषण या कर्मधारय समास से रसवत् अलङ्कार का अर्थ होता है रसयुक्त अलङ्कार । अतः, रसवत् काव्य में प्रयुक्त सभी अलङ्कार रसवत् अलङ्कार कहे जा सकते हैं । उन्होंने रसवत् सभी अलङ्कारों का प्राण माना है और उसके सम्बन्ध में यह मान्यता प्रकट की है कि जो अलङ्कार रस-तत्त्व के विधान से रस के समान ही आह्लादकारी हो, वह रस के तुल्य अलङ्कार रसवत् होता है ।' स्पष्ट है कि कुन्तक रसवत् अलङ्कार को विशिष्ट स्वरूप नहीं दे पाये । उनके मतानुसार किसी भी अलङ्कार को रसतुल्य आनन्ददायक मानकर रसवत् कहा जा सकता है । मम्मट ने रसवत् - नामक विशिष्ट अलङ्कार की सत्ता स्वीकार नहीं कर, ध्वनि-निरूपण के प्रसङ्ग में, वस्तु तथा अलङ्कार की प्रधानता के स्थल में वस्तु, ध्वनि तथा अलङ्कार ध्वनि का सद्भाव स्वीकार किया है । कोई भी अलङ्कार प्रधान होकर ध्वनित हो सकता है । कुन्तक ऐसे ही सरस अलङ्कार को रसवत् मानते थे । यक ने रस के निबन्धन में रसवत् अलङ्कार माना है । इस प्रकार वे भामह आदि की तरह सरस वाक्य में रसवत् अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार करते हैं । अलङ्कारवादी होने के कारण रस जैसे तत्त्व को भी विशेष अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर लेना रुय्यक के लिए अस्वाभाविक नहीं था । विश्वनाथ ने रस के गौण हो जाने में रसवत् अलङ्कार माना । उनकी धारणा आनन्दवर्धन की रसवत्-धारणा से अभिन्न है । अप्पय्य दीक्षित ने विश्वनाथ की ही तरह रस का अन्य वस्तु का अङ्ग हो जाना रसवत् का लक्षण माना है । मम्मट की तरह जगन्नाथ ने रसवत् का अलङ्कारत्व ही * १. द्रष्टव्य – कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, पृ० ३३८-६५ २. रस...........निबन्धे रसवत्" ...। – रुय्यक, अलङ्कार सूत्र, ८२ ३. रसभावौ तदाभासौ भावस्य प्रशमस्तथा । गुणीभूतत्वमायान्ति यदालङ, कृतयस्तदा ॥ रसवत् प्रय ऊर्जस्वि समाहितमिति क्रमात् ॥ — विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १२४ ४. द्रष्टव्य – अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, पृ० १८३, ८४
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy