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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६२५ स्वीकार नहीं किया है। वे रसवत् को विशिष्ट अलङ्कार मानना आवश्यक नहीं समझते। जहाँ रस की प्रधानता होगी, वहाँ रसध्वनि होगी। जहाँ रस अप्रधान हो जायगा, वहाँ वस्तु या किसी भी अलङ्कार की ध्वनि हो सकती है।
अलङ्कारवादी आचार्यों ने रसमय वाक्य को रसवत् अलङ्कार मानकर रस को विशेष अलङ्कार में सीमित कर दिया है। आनन्दवर्धन, विश्वनाथ मादि आचार्यों ने रस की अप्रधानता में रसवत् अलङ्कार माना है। यही लक्षण अप्पय्य दीक्षित को भी मान्य है। रस-मात्र को अलङ्कार मानना उचित नहीं। अत:, भामह, दण्डी, उद्भट तथा रुय्यक की रसवत्-परिभाषाओं की अपेक्षा आनन्दवर्धन, विश्वनाथ तथा अप्पय्य दीक्षित की परिभाषाएँ ही ग्राह्य हैं। रस के गौण हो जाने पर रसवत् अलङ्कार होता है।
प्रेय
__ प्रेय अलङ्कार को परिभाषित नहीं कर भामह ने उसका केवल उदाहरण दिया था।' दण्डी ने प्रिय कथन में प्रेय अलङ्कार माना।२ भामह के प्रेय के उदाहरण में भी प्रियोक्ति ही दिखलायी गयी थी। अतः, प्रिय उक्ति को भामहसम्मत प्रेय-लक्षण माना जा सकता है।
उद्भट ने प्रेय का सम्बन्ध भाव (रति आदि स्थायी, सञ्चारी तथा अनुभाव आदि) मे जोड़ा। भामह तथा दण्डी रस-निबन्धन में रसवत् अलङ्कार मान चुके थे। भाव आदि के निबन्धन में अलङ्कार के स्वरूप का स्पष्ट प्रतिपादन नहीं हुआ था। उद्भट ने भाव के निबन्धन में प्रेय अलङ्कार माना। आनन्दवर्धन के अनुसार भाव का गौण होना प्रेय है। चाटूक्तियों में राजा आदि विषयक रति की प्रधानता रहने से आनन्दवर्धन प्रेय नहीं मानते ।
कुन्तक ने प्रियतर कथन-रूप प्रेय को अलङ्कार्य मानकर उसके अलङ्कारत्व का खण्डन किया है। रसवत् की तरह भाव-निबन्धन-रूप प्रेय को भी वे
१. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालङ्कार, ३,५ २. प्रेयः प्रियतराख्यानम्"।-दण्डी, काव्यादर्श, २,२७५ ३. रत्यादिकानां भावानामनुभावादिसूचने । ___यत्काव्यं बध्यते सद्भिस्तत्प्रेयस्वदुदाहृतम् ॥
-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसं० ४,२ ४. द्रष्टव्य-आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, २,२७
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