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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
वलोकन-भेद का उल्लेख किया था। दास ने सिंहावलोकन की परिभाषा में कहा है कि इसमें पद का आदि और अन्त चरण कुण्डलित हो जाता है।' प्रथम चरण के अन्त का शब्द दूसरे चरण के आरम्भ में, दूसरे चरण के अन्त का शब्द तीसरे चरण के आरम्भ में तथा तीसरे चरण के अन्त का शब्द चौथे चरण के आरम्भ में और उसके अन्त का शब्द प्रथम चरण के आरम्भ में कुण्डलायित रूप से रहे, तो दास के अनुसार सिंहावलोकन अलङ्कार होगा। यह संस्कृत-आचार्यों के यमक-भेदों में से ही एक है। मम्मट के आद्यन्तिक यमक में यमक के ऐसे ही स्वरूप की कल्पना की गयी थी। इसे यमक से स्वतन्त्र अलङ्कार मानना उचित नहीं। सिंहावलोकन-न्याय संस्कृत में प्रचलित था, जिसमें आगे-पीछे के सुसम्बद्ध अवलोकन की धारणा व्यक्त की गयी थी। इसका नाम-रूप हिन्दी-आचार्यों ने उसी न्याय से लिया है।
दास ने अर्थालङ्कारों में श्रौती उपमा की गणना उपमा से स्वतन्त्र की है। उन्होंने अनन्वय, प्रतीप, उपमेयोपमा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, विकस्वर, निदर्शना, तुल्ययोगिता तथा प्रतिवस्तूपमा की तरह श्रौती उपमा को भी उपमा का ही विकार स्वीकार किया है। किन्तु दृष्टान्त, विकस्वर आदि की तरह श्रौती उपमा को उपमा का विकार नहीं मान कर उपमा का भेद मानना ही उचित होता। उपरिलिखित अलङ्कारों को उपमा का विकार मानना नवीन सूझ नहीं। संस्कृत के आचार्यों ने भी सादृश्यमूलक अलङ्कारों को उपमाप्रपञ्च कहा था।
दीपक अलङ्कार का एकत्र सामान्य स्वरूप-निरूपण कर अपरत्र दीपकभेदों का वर्णन किया गया है। देहरी-दीपक का नया नाम सुन कर कुछ आलोचक चमत्कृत हो उठे हैं; पर इसकी धारणा बीज रूप में प्राचीन आचार्यों के सामान्य दीपक-लक्षण में ही निहित थी। कारक-दीपक, क्रिया-दीपक आदि में भी मध्यस्थित एक पद देहरी-दीपक-न्याय से दो पदों को दीपित करता है। एक पद से अनेक के दीपित होने में ही दीपक की सार्थकता है। अतः, देहरी-दीपक की कल्पना में भेदीकरण की प्रवृत्ति-मात्र का परिचय मिलता है,
१. चरन अंत और आदि के, जमक कुण्डलित होई। सिंघविलोकनि है वहै, ... ..॥
-भिखारी दास, काव्य-निर्णय, १६, पृ० ५५५ २. द्रष्टव्य-मम्मट, काव्यप्रकाश, पृ० २०६ ३. प्रतिवस्तुप्रभृतिरुपमाप्रपञ्चः । वामन, काव्यालङ्कार, ४, ३, १