SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी रीति- साहित्य में अलङ्कार - विषयक उद्भावनाएँ [ ३३७ है, तत्त्व-चिन्तन की मौलिकता का नहीं । देहरी - दीपक नाम भी नूतन नहीं है । देहरी - दीपक - न्याय की धारणा संस्कृत में प्रचलित थी । दास ने स्वगुण नामक एक नवीन अलङ्कार का उल्लेख किया है। उन्होंने उसका लक्षण नहीं देकर केवल उदाहरण दिया है । डॉ० ओम्प्रकाश ने स्वगुण की एक परिभाषा उद्धृत की है— ' पाये पूरब रूप फिरि स्वगुन सुमति कह देत । पर इस उद्धरण का स्रोत प्रमाणित नहीं । यदि स्वगुण की उक्त परिभाषा को दास रचित मान लिया जाय तो स्वगुण अलङ्कार का स्वरूप 'चन्द्रालोक' के पूर्वरूप से, जिसमें पुनः स्वगुण की प्राप्ति पर बल दिया गया है, अभिन्न हो जायगा । पूर्वरूप के दो रूपों की कल्पना भिखारी दास के पूर्ववर्ती आचार्यों ने की थी । एक में वस्तु पर सन्निधि से दूसरे का गुण ग्रहण कर पुनः अपने पूर्व गुणों को धारण कर लेती है और दूसरे में वस्तु के विकृत होने पर भी पहली ही-सी अवस्था की अनुवृत्ति का वर्णन किया जाता है । 3 भिखारी दास ने दूसरे रूप को पूर्वरूप तथा प्रथम रूप को स्वगुण कह दिया है । चन्द्रालोककार के पूर्वरूप लक्षण से ही स्वगुणं शब्द भी इस अलङ्कार के नामकरण के लिए लिया गया है । भिखारी दास ने रसनोपमा नामक उपमा-भेद को स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उसे उपमा और एकावली का सङ्कर कहा है । विश्नाथ ने 'साहित्यदर्पण' में रसनोपमा के ऐसे ही स्वरूप का निरूपण किया था । " अनेक अलङ्कारों के सङ्कर या संसृष्टि-रूप में मिश्रण से अलङ्कार - विशेष के भेदोपभेदों की कल्पना की जाने लगे तो अलङ्कारों के अनन्त भेद हो जायँगे । दास ने इसी पद्धति पर उपमातिशयोक्ति, उत्प्र ेक्षातिशयोक्ति आदि अलङ्कार-भेदों की कल्पना कर ली है । अपह्न ुति, संसृष्टि, मालोपमा आदि के भी अनेक भेदों की परीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि भिखारी दास ने प्राचीन आचार्यों १. ओम्प्रकाश शर्मा, रीतिकालीन अलङ्कार साहित्य, पृ० ११३ २. तुलनीय - पुनः स्वगुणसंप्राप्तिर्विज्ञया पूर्वरूपता । — जयदेव, चन्द्रालोक, ५, १०३ ३. वही, ५, १०४ ४. उपमाँ और एकावली कौ संकर जहाँ होइ । ताही को 'रसनोपमाँ', कहैं.. 11 - भिखारी दास, काव्य - निर्णय, १८, पृ० ५०८ 三 ५. विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ३५ पृ० ६१४ २२
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy