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४६० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण को समन्वित रूप में भी उसका हेतु स्वीकार किया। उनके अनुसार समुल्लिखित वाक्यार्थ से तदतिरिक्त अर्थ की योजना उत्प्रेक्षा का लक्षण है। यह अतिरिक्तार्थ की योजना या तो सम्भाव्य के अनुमान से सम्भव होती है या सादृश्य के कारण। अनुमान और सादृश्य; दोनों एक साथ भी उल्लिखितार्थव्यतिरिक्त अर्थ की योजना के साधक हो सकते हैं। कुन्तक ने अतिशयोक को उत्प्रेक्षा का प्रयोजन माना है।' स्पष्ट है कि वे रुद्रट की तरह उत्प्रेक्षा में अतिशय और सादृश्य; दोनों का तत्त्व स्वीकार करते हैं। उत्प्रेक्षा के एक अन्य रूप में कुन्तक ने क्रियारहित वस्तु में भी किसी क्रिया के प्रति कर्तृत्व की कल्पना पर बल दिया है। क्रिया में कर्तृत्व का आरोप वस्तु के अपने सौन्दर्य की महिमा से हो सकता है अथवा भावक को वैसी प्रतीति होने के कारण भी हो सकता है।
वामन उत्प्रेक्षा को सादृश्यमूलक स्वीकार कर अतिशयोक्ति से उसका भेद-निरूपण कर चुके थे, फिर भी रुद्रट के द्वारा स्पष्ट रूप से और कुन्तक के द्वारा प्रकारान्तर से प्रस्तुत अलङ्कार का मूलतत्त्व सादृश्य के साथ अतिशय भी स्वीकृत हुआ। अग्निपुराणकार ने भी उत्प्रक्षा में अतिशय का तत्त्व स्वीकार कर उसके लक्षण में 'लोकसीमातिवर्तन' का उल्लेख किया। मम्मट ने उद्भट की तरह सम्भावना को उत्प्रेक्षा का लक्षण माना। ___आचार्य रुय्यक ने उत्प्रेक्षा की परिभाषा में उद्भट तथा वामन की "उत्प्रेक्षा-परिभाषाओं में प्रयुक्त क्रमशः सम्भावना एवं अध्यवसान पदों का सार लेकर 'साध्य अध्यवसाय' पर बल दिया।५ सम्भावना साध्य अध्यवसाय के रूप में ही व्यक्त होती है, सिद्ध के रूप में नहीं। ___ रुय्यक के परवर्ती आचार्य उत्प्रेक्षा के लक्षण में सम्भावना या साध्याध्यवसाय पद का ही प्रयोग करते रहे हैं। विद्याधर के उत्प्रेक्षा-लक्षण में अध्यवसान पद प्रयुक्त हुआ है। विश्वनाथ, विद्यानाथ, हेमचन्द्र, शोभाकर,
१. द्रष्टव्य, कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३, २५-२७ २. वही, ३, २८ ३. अग्निपुराण, अध्याय, ३४४ ४. सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् ।
___-मम्मट, काव्यप्र० १०, १३७ ५. अध्यवसाये व्यापारप्राधान्य उत्प्रेक्षा।
-रुय्यक, अलं० सर्वस्व, सूत्रसंख्या २१ ६. विद्याधर, एकावली।