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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ६०६ अभिप्राय यह है कि कर्ता जिस उपाय से कार्य-विशेष का साधन कर सकता हो, उस उपाय की सम्भावना कर कर्ता के अभिमत से विरुद्ध कार्यसाधन में उसी उपाय को सहायक बना लेने की कल्पना व्याघात का दूसरा रूप है। विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने व्याघात के इन दोनों रूपों को स्वीकार किया है।'
उक्त दोनों रूपों पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्याघात के दोनों रूपों में कोई महत्त्वपूर्ण व्यावर्त्तक धर्म नहीं। एक में किसी उपाय स साधित कार्य का उसी उपाय से अन्यथाकरण तथा दूसरे में अभीष्ट कार्यसाधन के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले उपाय को उस कार्य से विरुद्ध कार्य का साधन प्रमाणित कर उस अभीष्ट कार्य का अन्यथाकरण वाञ्छनीय माना गया है। कर्ता के ही उपाय का (चाहे वह प्रयुक्त हो या उसके प्रयोग की सम्भावना हो) उसके अभीष्ट-हनन में उपयोग व्याघात की प्रधान प्रकृति है। सम्पादित या सम्पाद्यमान कार्य के उपाय का कार्य-हनन में उपयोग के आधार पर व्याघात के दो रूपों की कल्पना आवश्यक नहीं थी। उन्हें व्याघात के एक लक्षण में समाविष्ट कर उसके दो भेद मानना समीचीन होता। पण्डितराज जगन्नाथ ने इसीलिए एक व्यापक परिभाषा बनाकर व्याघात के दोनों रूपों का समाहार उसी में कर दिया। उनके अनुसार "जहाँ एक कर्ता जिस कारण से कोई कार्य निष्पन्न कर ले या किसी कार्य का निष्पादन करना चाहे; पर अन्य कर्ता उसी कारण से उसके विरुद्ध कार्य का सम्पादन कर अथवा सम्पादन करने की इच्छा से पूर्व कर्ता के कार्य का हनन कर दे वहाँ व्याघात अलङ्कार होता है ।"२
निष्कर्षतः, कर्ता जिस उपाय से कार्य-साधन कर ले उसी उपाय से दूसरे कर्ता के द्वारा उस कार्य का अन्यथाकरण व्याघात का एक भेद तथा जिस उपाय से वह अभीष्ट कार्य का सम्पादन करना चाहे, उस उपाय को उसके अभीष्ट कार्य के विरुद्ध कार्य का साधक बनाकर उसके उद्दिष्ट कार्य का अन्यथाकरण व्याघात का दूसरा भेद है। "शिव की दृष्टि से जले हुए काम १. द्रष्टव्य-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,६७-६८ तथा
. -अप्पय्य दीक्षित कुवलयानन्द १०२-३ २. यत्र ह्य केन की येन कारणेन कार्य किञ्चिन्निष्पादितं निष्पिपादयिषतं
वा तदन्येन क; तेनैव कारणेन तद्विरुद्धकार्यस्य निष्पादनेन निष्पिपादयिषया वा व्याहन्यते स व्याघातः।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७२८