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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
को युवती अपनी दृष्टि से ही जीवित कर रही है' यह कथन साधित कार्य ( काम के वध ) का उसी साधन ( दृष्टि ) से अन्यथाकरण का उदाहरण है । 'नायक परदेश जाने के समय नायिका को कोमलाङ्गी बताकर साथ जाने से रोकता है; पर उसीकी युक्ति से अपनी कोमलाङ्गिता के कारण वियोग का दुःख सहने में अपने को असमर्थ बताकर वह नायक के उद्देश्य के विरुद्ध कार्य का साधक उसके साधन को बता देती है ।' ऐसे स्थल में व्याघात का दूसरा भेद माना जायगा ।
विचित्र
मम्मट के समय तक विचित्र को स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में मान्यता नहीं मिली थी । रुय्यक ने सर्वप्रथम विचित्र के स्वरूप की कल्पना की और उसे स्वतन्त्र अलङ्कार माना। उनके अनुसार जहाँ कर्त्ता अपने अभीष्ट फल के विपरीत फल के लिए प्रयत्न करता हो, वहाँ विचित्र अलङ्कार होता है । ' उन्नति के लिए प्रभु के सामने झुकना आदि इसके उदाहरण दिये गये हैं । नमन किया उन्नति के विपरीत है; फिर भी उस विपरीत का उत्साह आश्चर्यजनक होने के कारण विचित्र अलङ्कार का उदाहरण है । ऐसे उदाहरणों पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्त्ता वस्तुतः अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए ही यत्न करता है, पर वह यत्न आपाततः उसके उद्दिष्ट फल के विपरीत फल का यत्न-सा लगता है । उद्दिष्ट फल के विपरीतधर्मा कार्य का आरम्भ कर कर्त्ता उद्दिष्ट फल को प्राप्त करना चाहता है । वह विपरीत फल का यत्न इष्ट-सिद्धि में सहायक ही होता है । अतः उसके प्रयत्न में जान पड़ने वाला विरोध अतात्त्विक ही होता है । इष्ट फल के विपरीत प्रयास की विचित्रता के आधार पर इसका अन्वर्थ अभिधान कल्पित है ।
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विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने रुय्यक की धारणा के अनुरूप ही विचित्र को परिभाषित किया है। उन्होंने इष्ट फल के लिए विरुद्ध कार्य करना विचित्र का लक्षण माना है । अप्पय्य दीक्षित के विचित्र लक्षण के दो पाठ
१. स्वविपरीतफलनिष्पत्तये प्रयत्नो विचित्रम् । – रुय्यक, अलङ्कारसू० ४७ २. विचित्र यद्विरुद्धस्य कृतिरिष्टफलाय चेत् ।
- विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,९३ तथा - विचित्र तत्प्रयत्नश्चेद्विपरीतफलेच्छाया ।
- अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द ९४