SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अलङ्कारों के परस्पर-निरपेक्ष सद्भाव के स्थल में संसृष्टि अलङ्कार माना था । वामन ने भामह के मत को ही स्वीकार किया है। वामन की अलङ्कार-धारणा के इस परीक्षण से स्पष्ट है कि उन पर भामह की अलङ्कार-विषयक मान्यता का भूरिशः प्रभाव पड़ा है। उनके अधिकांश अलङ्कारों का स्वरूप भामह के अलङ्कारों के स्वरूप से अभिन्न है । तुल्ययोगिता, व्याजस्तुति, व्यतिरेक, निदर्शना, अनन्वय, विभावना आदि अलङ्कार इस निष्कर्ष के प्रमाण हैं। वामन के जिन अलङ्कारों की प्रकृति प्राचीन आचार्यों के अलङ्कारों से कुछ. भिन्न है उनमें से अधिकांश का भेदक तत्त्व औपम्य है। प्रत्येक अलङ्कार को उपमा-प्रपञ्च सिद्ध करने के लिए भामह ने उसमें उपमानोपमेय भाव का समावेश करना चाहा है। अतः भामह आदि आचार्यों के अनेक अलङ्कारलक्षण को उन्होंने कुछ संशोधन के साथ स्वीकार किया है। भामह ने जिन अलङ्कारों की रूप-रचना में सादृश्य के तत्त्व पर विचार नहीं किया था, उनके स्वरूप-विधान में वामन ने साम्य की कल्पना जोड़ दी है। फलतः उनके अलङ्कारों का स्वभाव प्राचीनों के अलङ्कार से किञ्चित् भिन्न हो गया है। क्रम या यथासंख्य, श्लेष, विशेषोक्ति, परिवृत्ति, आक्षेप आदि अलङ्कारों का स्वरूप इसका निदर्शन है। कुछ अलङ्कारों के स्वरूप-विन्यास में वामन पर भ रत की लक्षण-धारणा का भी प्रभाव पड़ा है। विरोधाभास, समाहित आदि के स्वरूप की परीक्षा के क्रम में उन पर भरत के तत्तल्लक्षणों की प्रकृति का प्रभाव देखा जा चुका है। वामन ने वक्रोक्ति तथा व्याजोक्ति-इन दो नवीन अलङ्कारों की उद्भावना की है; किन्तु वक्रोक्ति का अलङ्कारत्व असन्दिग्ध नहीं। वह लक्षणा नामक शब्दशक्ति का एक भेद है। वामन की व्याजोक्ति-धारणा मौलिक है ।
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy