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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [१३३ आचार्य रुद्रट आचार्य रुद्रट भारतीय काव्यशास्त्र के अलङ्कार-सम्प्रदाय के प्रतिष्ठाताओं की प्रथम पंक्ति में परिगणित हैं। काव्य में शब्दगत एवं अर्थगत अलङ्कारों को सर्वाधिक महत्त्व देने के कारण ही उन्होंने अपनी रचना का अभिधान 'काव्यालङ्कार' किया है। ग्रन्थ के नामकरण के सम्बन्ध में टीकाकार नमिसाधु का यह मन्तव्य उचित ही है कि काव्य के अलङ्कार ही प्रस्तुत ग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य हैं।' 'काव्यालङ्कार' के दश अध्यायों में काव्य के शब्दार्थालङ्कार की सविस्तर मीमांसा की गयी है। कालक्रम की दृष्टि से रुद्रट अलङ्कारवादी आचार्यों में उद्भट के ठीक बाद आते हैं। उन दोनों के बीच काल का अन्तराल अनुमानतः पाँच दशाब्द से अधिक का नहीं होगा, किन्तु इतनी अल्प अवधि में ही अलङ्कारों की संख्या में प्रचुर वृद्धि हो गयी है। उद्भट के इकतालीस अलङ्कारों से बढ़ कर रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में तिरसठ अलङ्कार हो गये । काव्यालङ्कार में पाँच शब्दालङ्कार तथा अंठावन अर्थालङ्कारों की विवेचना की गयी है। यद्यपि रुद्रट ने अर्थालङ्कार के केवल इकावन व्यपदेश का उल्लेख किया है, तथापि स्वरूपतया वे अंठावन प्रकार के हैं। कारण यह है कि रुद्रट ने एक ही नाम के कुछ अलङ्कारों को दो वर्गों में रखा है। इस प्रकार समान संज्ञा होने पर भी वर्ग-भेद से उनके स्वरूप पृथक् पृथक् हो जाते हैं । अतः स्वरूपदृष्ट्या अर्थालङ्कारों की संख्या वस्तुतः अठावन ही मानी जानी चाहिए। पाँच शब्दालङ्कारों के योग से काव्यालङ्कार में अलङ्कारों की संख्या तिरसठ हो जाती है। रुद्रट ने अर्थालङ्कार के चार वर्ग माने हैं(क) वास्तव, (ख) औरम्य, (ग) अतिशय तथा (घ) श्लेष । ये चार शुद्ध अर्थालङ्कारों के वर्ग हैं। एक सङ्कीर्ण अलङ्कार माना गया है, जिसे सङ्कर नाम से अभिहित किया गया है। उक्त अलङ्कारों में से अनेक के भेदोपभेदों का बड़ा व्यापक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में रुद्रट के नवीन अलङ्कारों तथा प्राचीन अलङ्कारों के नवीन भेदों के उद्गम-स्रोत का अन्वेषण ही अभिप्रेत है। 'काव्यालङ्कार' में उल्लिखित शब्दालङ्कार तथा वर्गानुक्रम से निर्दिष्ट अर्थालङ्कार निम्नलिखित हैंशब्दालङ्कार--१. वक्रोक्ति, २. अनुप्रास, ३. यमक, ४. श्लेष तथा ५. चित्र । १. तत्र काव्यालङ्कारा वक्रोक्तिवास्तवादयोऽस्य ग्रन्थस्य प्राधान्य तोऽभिधेयाः।-काव्यालं० १,२ पर नमिसाधु की टीका, पृ० २
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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