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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
है । किसी के द्वारा पूछे जाने पर निर्णय किये जाने में आचार्य भरत ने आख्यान' नामक लक्षण का सद्भाव स्वीकार किया है । ' रुद्रट के उपमामूलक उत्तर अलङ्कार की परिभाषा में एक अर्थ से तत्तल्य अर्थ के निर्णय का तत्त्व मिथ्याध्यवसाय लक्षण से, किसी द्वारा पूछे जाने पर वक्ता के द्वारा निर्णय किये जाने का तत्त्व आख्यान लक्षण से और उपमानोपमेय का तत्त्व उपमा अलङ्कार से गृहीत है ।
प्रतीप
उपमेय की अतिशयता के द्योतन के लिए जहाँ उपमान के साथ उसकी समता के लिए उसकी निन्दा की जाती हो या उस पर अनुकम्पा प्रकट की जाती हो वहाँ रुद्रट के अनुसार प्रतीप अलङ्कार होता है । २ प्रतीप के इस स्वरूप की कल्पना आचार्य दण्डी के उपमा अलङ्कार के एक भेद उत्प्रेक्षितोपमा के स्वरूप के आधार पर की गयी है । दण्डी के द्वारा प्रदत्त उत्प्र ेक्षितोपमा के उदाहरण की व्याख्या करते हुए 'काव्यादर्श' की 'कुसुमप्रतिमा' टीका के लेखक नृसिंहदेव शास्त्री ने रुद्रट के प्रतीप अलङ्कार के उदाहरण से उसका स्वरूप-साम्य प्रतिपादित किया है । 3 स्पष्ट है कि दण्डी की उपमा धारणा के आधार पर ही रुद्रट ने प्रतीप नामक नवीन अलङ्कार की उद्भावना कर ली । रुद्रट के परवर्ती आचार्यों ने प्रतीप व्यपदेश को तो स्वीकार किया है; किन्तु उसके रुद्रट - कल्पित लक्षण को अस्वीकार कर नवीन लक्षण की सृष्टि की है ।
उभयन्यास
रुद्रट के उभयन्यास अलङ्कार की प्रकृति भामह आदि आचार्यों के
१. द्रष्टव्य- भरत, ना० शा०, १६,२१ ।
२. यत्रानुकम्प्यते सममुपमाने निन्द्यते वापि । उपमेयमतिस्तोतुं दुरवस्थमिति प्रतीपं स्यात् ॥
— रुद्रट, काव्यालं० ८, ७६ ३. वयन्तु — 'गर्वमसंवाह्यमिमम्' ' इत्यादिस्थलवत्' 'अन्योपमेयलाभेन वर्ण्यस्यानादरश्च तत्' इत्युक्तेः प्रतीप - विशेषच्छायामपि ब्र ूमः । — काव्याद० कुसुमप्रतिमा, पृ० ८२ । ध्यातव्य है कि 'गर्वमसं वाह्यमिमम् रुद्रट के प्रतीप अलङ्कार का उदाहरण है ।
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द्रष्टव्य — रुद्रट, काव्यालं ०८,७८