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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [१४५ औपम्य वर्ग के अलङ्कार मत जहां वक्ता लोकमत से सिद्ध उपमेय का कथन कर स्वमत से उस उपमेय के समान धर्म वाले उपमान का उल्लेख करता हो, वहां मत नामक अलङ्कार माना गया है।' लोकमत से भिन्न वक्ता के निज-मत का प्रकाशन होने से मत की अन्वर्था संज्ञा है। स्पष्ट है कि इसमें वक्ता किसी वस्तु के सम्बन्ध में अन्य व्यक्तियों की मान्यता का निषेध करता है; किन्तु अपह नुति की तरह इसमें प्रस्तुत का शब्दतः निषेध नहीं किया जाता। इसमें वर्ण्य विषय के सम्बन्ध में अन्य लोगों के मत को अस्वीकार कर वक्ता अपने मत का उल्लेखमात्र करता है। आचार्य भरत ने हेतु लक्षण में किसी वस्तु के सम्बन्ध में कही जाने वाली बातों को अनादृत कर वक्ता के द्वारा किसी असाधारण अर्थ का सप्रमाण निर्णय किया जाना वाञ्छनीय माना है। इस लक्षण में उपमानोपमेय भाव की धारणा को मिला कर लोगों की उपमेयोक्ति का अनादर कर स्वमत से उपमानोक्ति की धारणा मत अलङ्कार के लक्षण में व्यक्त की गयी है। स्पष्ट है कि हेतु लक्षण तथा उपमा अलङ्कार के तत्त्वों के योग से मत अलङ्कार के स्वरूप की रचना हुई है। उत्तर उत्तर अलङ्कार के लक्षण में रुद्रट ने यह मान्यता व्यक्त की है कि जहाँ उपमेयभूत वस्तु के सम्बन्ध में कुछ पूछे जाने पर वक्ता उपमान के विख्यात तथा तन्मात्रनिष्ठ कार्य से उसे उपमान के तुल्य कहे, वहाँ उत्तर नामक अलङ्कार होता है।3 उपमान के कार्य से उपमेय को उसके समान कहे जाने के कारण यह उत्तर उपमामूलक अलङ्कार है। एक अर्थ से तत्त ल्य अन्य अर्थ के निर्णय पर आचार्य भरत ने मिथ्याध्यवसाय लक्षण में बल दिया था। उत्तर में भी उपमान के कार्य से तत्त ल्य उपमेय का निर्णय होता १. तन्मतमिति यत्रोक्त्वा वक्तान्यमतेन सिद्धमुपमेयम् । ब्र यादथोपमान तथा विशिष्टं स्वमत सिद्धम् ।।-रुद्रट, काव्यालं०८,६९ २. द्रष्टव्य-भरत, ना० शा० १६,१४ ३. यत्र ज्ञातादन्यत्पृष्टस्तत्त्वेन वक्ति तत्तु ल्यम् । कार्येणानन्यसमाख्यातेन तदुत्तरं ज्ञेयम् ॥ रुद्रट, काव्यालं. ८,७२ ४. द्रष्टव्य-भरत, ना० शा०, १६,१६ १०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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