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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
के उत्कर्ष को गुण का क्रमिक अपकर्ष भी कहा जा सकता है। जगन्नाथ ने एक विषय तथा अनेक विषय के आधार पर भी सार के दो-दो भेद माने हैं।'
निष्कर्षतः, उत्तरोत्तर क्रम से वस्तुओं के ( श्लाघ्य या अश्लाघ्य या दोनों प्रकार के ) गुणों का उत्कर्ष दिखाया जाना सार का एक रूप तथा वस्तुओं का उत्तरोत्तर गुणापकर्ष दिखाना उसका दूसरा रूप है।
सार-भेद
अप्पय्य ने गुणों के श्लाघ्य, अश्लाघ्य तथा उभय रूप के आधार पर सार के तीन भेद किये थे। पण्डितराज ने गुणोत्कर्ष तथा गुणापकर्ष-रूप-दो भेद मानकर एक विषय तथा अनेक विषय के आधार पर दोनों के दो-दो भेदः माने हैं। अन्योन्य
अन्योन्य अलङ्कार के मूल में दो पदार्थों के पारस्परिक उपस्कार या उपकार की धारणा रही है। दोनों एक दूसरे के लिए समान क्रिया करते हैं। इसलिए दोनों में परस्पर क्रिया का एक कारक-भाव रहता है। रुद्रट ने अन्योन्य की परिभाषा में कहा है कि जहाँ दो पदार्थों में परस्पर क्रिया से वैशिष्ट्य लाने वाला एक कारक-भाव हो, वहाँ अन्योन्य अलङ्कार होता है । २ अभिप्राय यह कि दो पदार्थ एक दूसरे के लिए यदि समान क्रिया करते हों और उस क्रिया से उनके वैशिष्ट्य की पुष्टि होती हो तो अन्योन्य अलङ्कार होगा। स्पष्टतः अन्योन्य अन्वर्था संज्ञा है।
भोज ने अन्योन्य का विस्तृत विवेचन किया। उन्होंने अन्योन्य की मूल धारणा में कोई परिवर्तन नहीं कर रुद्रट की धारणा को अपेक्षाकृत सरल रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार अन्योन्य का लक्षण है परस्पर एक दूसरे का उपकार । रुद्रट में भी समान क्रिया में दो पदार्थों के एक कारक-भाव का
१. सैव संसर्गस्य उत्कृष्टापकृष्टभावरूपत्वे सारः । तत्रापि पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्तरस्योत्कर्षापकर्षाभ्यां व विध्यम् । "इमं चालङ्कारमेकानेकविषयत्वेन पुनद्विविधमामनन्ति ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७३७ २. यत्र परस्परमेक: कारकभावोऽभिधेययोः क्रियया।
संजायेत स्फारिततत्त्वविशेषस्तदन्योन्यम् ।।-रुद्रट, काव्यालं० ७,६१