SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण रुद्र, अग्निपुराणकार, भोज, मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि सभी एकमत हैं; पर जहाँ, दण्डी, रुद्रट, अग्निपुराणकार, आदि ने चित्र का अपेक्षाकृत व्यापक अर्थ लेकर सभी वैचित्र्यजनक वर्ण- कौतुक को — चाहे वर्ण-गोपन आदि के द्वारा प्रहेलिका के रूप में हो या पद्म, खड्ग आदि वस्तु स्वरूप में वर्ण-गुम्फ के रूप में - चित्र माना था, वहाँ मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि ने केवल वस्तु-बन्ध चित्र को ही अलङ्कार के रूप में स्वीकृति दी । I हिन्दी - रीतिकाल में चित्र - काव्य तथा चित्रालङ्कार - विवेचन के लिए अनुकूल वातावरण मिला । चमत्कार- प्रधान काव्य-सर्जना के प्राचुर्य के कारण अनेक आचार्यों ने विस्तार से चित्रालङ्कार-निरूपण किया । चित्र पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये और अनेक नवीन चित्र बन्धों की कल्पना की गयी । घड़ी-बन्ध आदि की कल्पना इसका प्रमाण है । बलवान सिंह ने शब्द-चित्र, अर्थ - चित्र तथा सङ्कर- चित्र भेदों से चित्र का विशद विवेचन किया है ।" यह ध्यातव्य है कि - संस्कृत-आचार्यों ने भी ध्वनि-हीन काव्य को चित्र - काव्य माना था । इस तरह चित्र - काव्य का क्षेत्र चित्र अलङ्कार से व्यापक है, जिसमें सभी शब्दार्थालङ्कारों की योजना हो सकती है । बलवान सिंह ने उसी चित्रकाव्य-धारणा के अनुरूप अर्थालङ्कारों को भी चित्रालङ्कार के क्षेत्र में ला दिया है । यह उचित नहीं । चित्र - अलङ्कार का क्षेत्र चित्र - काव्य से थोड़ा भिन्न है । हिन्दी - आचार्यों ने भी -संस्कृत-आचार्यों की तरह वर्ण- कौतुक को ही चित्र का लक्षण माना है । चित्र - अलङ्कार के महत्त्वहीन माने जाने पर भी बाणभट्ट के काल से हिन्दी - रीतिकाल तक उसमें कवियों की रुचि का इतिहास चित्र की लोकप्रियता प्रमाणित करता है । प्रहेलिका चित्रालङ्कार के विकास क्रम की परीक्षा में हम देख चुके हैं कि प्रहेलिका की धारणा का विकास कुछ दूर तक चित्र धारणा के साथ हुआ है । दण्डी आदि आचार्यों ने चित्र से स्वल्प भेद के साथ प्रहेलिका का विवेचन किया था । अग्निपुराणकार ने दोनों को मिला कर प्रहेलिका को चित्र का एक भेद - स्वीकार कर लिया । दोनों में वर्ण- कौतुक की धारणा समान रूप से होने के - कारण ही ऐसा हुआ है । सर्वप्रथम भामह के 'काव्यालङ्कार' में प्रहेलिका की परिभाषा प्राप्त होती है । वहाँ यह सङ्क ेत भी स्पष्ट रूप से दिया गया है। १. बलवान सिंह, चित्र चन्द्रिका पृ० ३
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy