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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उद्भट ने भामह के आक्षेप - लक्षण को ही किञ्चित् शब्द-भेद के साथ उद्धृत कर दिया है । विवृति में आक्षेप के उद्देश्य का स्पष्टीकरण करते हुए. कहा गया है कि इसमें निषेधाभास से अर्थ में विशेष का प्रतिपादन होता है । वह विशेष - प्रतिपादन अभीष्ट अर्थ के अंशक्य- वचनत्व आदि के रूप में होता है ।
वामन ने आक्षेप को उपमानोपमेय-भाव पर आधृत मानकर उपमान के आक्षेप या प्रतिषेध को आक्षेप का स्वरूप माना है । जहाँ उपमान एवं उपमेय का समान कार्य हो, वहाँ प्रस्तुत से भिन्न अप्रस्तुत की अनुपादेयता का प्रतिपादन हो सकता है । अप्रस्तुत की अनुपादेयता का कथन या उसका निषेध वामन के अनुसार आक्षेप है । उपमान का आक्षेप अर्थात् आक्षेप अकथित उपमान की प्रतिपत्ति भी वामन के अनुसार आक्षेप का दूसरा रूप है । " वामन के आक्षेप का प्रथम रूप अन्य आचार्यों के उपमान के अनादररूप प्रतीप से तथा उसका दूसरा रूप समासोक्ति से मिलता-जुलता है । इस आक्षेप का समासोक्ति से इतना ही भेद है कि समासोक्ति में प्रस्तुत से अप्रस्तुत अर्थ की प्रतीति व्यञ्जना से होती है और इसमें आक्षेप से ।
रुद्रट के मतानुसार आक्षेप की परिभाषा है कि जहाँ वक्ता लोक में प्रसिद्ध अथवा विरुद्ध उपमेय रूप अर्थ को कह कर उस वचन का आक्षेप करता हुआ उसकी सिद्धि के लिए उपमान का कथन करता है, वह आक्षेप है | 3 इस प्रकार रुद्रट के अनुसार आक्षेप के रूप-विधान की तीन अवस्थाएँ हैं— प्रसिद्ध या विरुद्ध उपमेय की उक्ति, उक्त का आक्षेप तथा उसके समर्थन में उपमान का कथन ।
१. द्रष्टव्य, उद्भट, कान्यालं० सारसं० २,२ तथा उसकी विवृति - अभिमतस्याशक्यवचनत्वादिविशेषप्रतिपादनाय यः प्रतिषेधः प्रतिषेधः इव .......। - न तु प्रतिषेध एव । – पृ० २१
२. उपमानाक्षेपश्चाक्षेपः । तथा — उपमानस्याक्षेपः प्रतिषेधः उपमानाक्षेपः । तुल्यकार्यार्थस्य नैरर्थक्य विवक्षायाम् । उपमानस्याक्षेपतः: प्रतिपत्तिरित्यपि सूत्रार्थः । - वामन, काव्यालं० सू० ४,३, २७ तथा उसकी वृत्ति पृ० २७०-७१
३. वस्तु प्रसिद्धमिति यद्विरुद्धमिति वास्य वचनमाक्षिप्य ।
अन्यत्तथात्वसिद्ध्यै यत्र ब्रूयात् स आक्षेपः ॥ — रुद्रट, काव्यालं ० ८९.