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अलङ्कार-धारणा का विकास
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व्यङग्य-अर्थ का तथा व्यञ्जना-शक्ति का अध्ययन अलङ्कार से पृथक् सन्दर्भ में किया था। इसीलिए उन्हें ऐसी उक्ति में अलङ्कारत्व की कल्पना की आवश्यकता नहीं जान पड़ी होगी। लोकोक्ति के प्रयोग तथा अन्यार्थ की व्यञ्जना की धारणा नवीन नहीं है। निरुक्ति
जहाँ अर्थविशेष का अभिधान कराने वाली संज्ञा से उस अर्थ के साथ ही योगवशात् अन्य अर्थ का भी बोध हो, वहाँ निरुक्ति नामक अलङ्कार माना गया है।' आचार्य भरत ने लक्षण के एक निरुक्त भेद की कल्पना की थी और उसके लक्षण-निरूपण-क्रम में इससे मिलती-जुलती धारणा प्रकट की थी। इस अलङ्कार की धारणा का मूल उक्त लक्षण को ही माना जा सकता है। प्रतिषेध
प्रतिषेध या निषेध की धारणा से अन्यार्थ-व्यञ्जना की धारणा को मिला कर प्रतिषेध अलङ्कार की कल्पना कर ली गयी है। सामान्य निषेध में चमत्कार नहीं होने से उसमें अलङ्कारत्व नहीं होता। इसमें चमत्कार अन्यार्थगभिता से आता है। इसमें सर्वविदित का निषेध किया जाता है। यह निषेध अप्राप्त का निषेध है। ऐसे स्थल में निषेध का कोई अर्थ नहीं होता। अतः, किसी शब्द-विशेष के प्रयोग से उस निषेध में अन्तर्हित अन्य अर्थ को प्रकट किया जाता है। प्राचीन आचार्यों की दृष्टि में ऐसे स्थल में निषेध से अन्यार्थ की व्यञ्जना ही मानी जायगी। विधि
सिद्ध के ही विधान में विधि नामक अलङ्कार माना गया है।४ इसमें भी चारुता अर्थान्तरगर्भिता में ही रहती है। स्पष्टतः, यह भी व्यञ्जना का ही भेद है। शोभाकर ने भी इस अलङ्कार की कल्पना की थी।
१. निरुक्तिर्योगतो नाम्नामन्यार्थत्वप्रकल्पनम् । -वही, १६४ २. द्रष्टव्य-भरत, नाट्यशास्त्र १६, १२ तथा उसका पाठान्तर
पृ० ३०५ ३. प्रतिषेधः प्रसिद्धस्य निषेधस्यानुकीर्तनम् ।-अप्पय्य, कुवलयानन्द, १६५ ४. सिद्धस्यैव विधानं यतमाहुर्विध्यलंकृतिम् ।-वही, १६६
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