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________________ २८८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विवृतोक्ति की धारणा नवीन नहीं है। उसकी अलङ्कार-रूप में स्वीकृति-मात्र नवीन है । पर उसका अलङ्कारत्व असन्दिग्ध नहीं। युक्ति ___ युक्ति-नामक अलङ्कार का स्वरूप व्याजोक्ति-नामक प्राचीन अलङ्कार के स्वरूप से मिलता-जुलता है। युक्ति के स्वरूप-निर्धारण के क्रम में कहा गया है कि जहाँ अपने मर्म को छिपाने के लिए क्रिया के द्वारा दूसरे की वञ्चना की जाय, वहाँ युक्ति अलङ्कार होता है।' व्याजोक्ति से युक्ति की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करने के लिए दो युक्तियाँ दी गयी हैं:-(१) व्याजोक्ति में आकार का गोपन होता है, पर युक्ति में उससे अन्य वस्तु का गोपन होता है, (२) व्याजोक्ति में तथ्य का गोपन उक्ति से होता है; पर युक्ति में क्रिया से ।२ तथ्य को छिपाने का तथा कोई झूठा बहाना बना कर दूसरे को वञ्चित करने का प्रयास व्याजोक्ति और युक्ति-दोनों में समान रूप से होता है। इससे स्पष्ट है कि बहुत सूक्ष्म भेद के आधार पर एक अलङ्कार से अलग दूसरे अलङ्कार के अस्तित्व की कल्पना की प्रवृत्ति से ही युक्ति का जन्म हुआ है। लोकोक्ति प्राचीन आचार्यों ने लोकोक्ति को अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं दी थी। काव्य में लोक-प्रचलित उक्ति का प्रयोग प्राचीन काल से होता रहा है। लोकोक्ति के प्रयोग में अलङ्कारत्व मानना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता। काव्य की उक्ति को अलङ्कार्य ही माना जाना चाहिए । छेकोक्ति छेकोक्ति की भी अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नवीन है। लोकोक्ति के अर्थान्तरगर्भ प्रयोग में प्रस्तुत अलङ्कार की सत्ता मानी गयी है। अर्थान्तर का बोध व्यञ्जना-वृत्ति कराती है । इस अलङ्कार में व्यञ्जना-व्यापार को भी समेट लिया गया है। व्यञ्जना-व्यापार से किसी लोकोक्ति में अन्यार्थ-बोध में प्रस्तुत अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया गया है। प्राचीन आचार्यों ने १. युक्तिः परातिसन्धानं क्रियया मर्मगुप्तये ।-अप्पय्य, कुवलयानन्द, १५६ २. द्रष्टव्य—वही, वृत्ति, पृ० १७३ ३. छेकोक्तिर्यत्र लोकोक्तेः स्यादर्थान्तरगभिता। वही, १५८
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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