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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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का प्रयोग कर श्लेष से उसका भेद बताते हुए कहा है कि समासोक्ति में विशेष्य कभी श्लिष्ट नहीं होता वह केवल प्रस्तुत अथ का ही अभिधान करता है।' रुय्यक ने भी केवल विशेषण-साम्य में समासोक्ति तथा विशेष्य और विशेषण दोनों के साम्य में श्लेष मानकर दोनों का विषय-विभाग किया है। यह धारणा विश्वनाथ आदि परवर्ती आचार्यों को भी मान्य हुई। जगन्नाथ की मान्यता है कि यदि विशेषण-मात्र का ही श्लेष दोनों में रहे तो दोनों का भेद यह होगा कि श्लेष में प्रकृत-अप्रकृत दोनों का उपादान होगा ; पर समासोक्ति में केवल प्रकृत का उपदान होगा, अप्रकृत व्यङग्य होगा। समासोक्ति में विशेषण का दो अर्थों का उपपादक होना अपेक्षित है। वह साधारण शब्द से भी दो अर्थों का उपपादन कर सकता है, उपमागर्भ समास से भी और श्लेष से भी। इस प्रकार श्लेष और समासोक्ति में मुख्य रूप से दो भेदक धर्म है
(क) श्लेष में दोनों अर्थ वाच्य होते है, पर समासोक्ति में एक वाच्य और दूसरा व्यङ्ग्य ।
(ख) श्लेष में यदि दोनों प्रकृत या दोनों अप्रकृत अर्थों का वर्णन अभीष्ट हो तो विशेषण और विशेष्य; दोनों का श्लिष्ट प्रयोग होता है। जहाँ एक प्रकृत तथा दूसरा अप्रकृत अर्थ विवक्षित हो, वहाँ विशेष्य तो श्लिष्ट नहीं होता; पर विशेषण आवश्यक रूप से श्लिष्ट होता है। समासोक्ति में श्लिष्ट विशेष्य का प्रयोग कभी नहीं होता। श्लिष्ट विशेषण का प्रयोग भी आवश्यक नहीं। उसमें श्लिष्ट विशेषण का भी प्रयोग हो सकता और उसके विना समान
१. प्रकृतार्थेन वाक्येन तत्समानविशेषणः ।
अप्रस्तुतार्थकथनं समासोक्तिरुदाहता॥ तथा-नन्वेव श्लेषता प्राप्तेत्याह -तत्समानविशेषणः, विशेष्यपदं तु प्रस्तुतार्थाभिधाय्येव ।-उद्भट, काव्यालं० सारसं० २-२१ तथा उसकी विवृति पृ० २७ २. केवल विशेषणसाम्यं समासोक्तावुक्तम् । तत्र द्वयोः प्राकरणिकयोः अप्राकरणिकयोः प्राकरणिकाप्राकरणिकयो श्लिष्टपदोपनिबन्धे श्लेषः ।
-अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ११० ३. विशेषणमात्रश्लिष्टतायामपि प्रकृताप्रकृतधर्मिणोरुपादान एव श्लेषः । प्रकृतर्मिमात्रस्योपादाने तु समासोक्तिरेव विषयः ।
-जगन्नाथ, रसगङ गाधर, पृ० ६२०