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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
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जगन्नाथ आदि परवर्ती आचार्यों ने पूर्वरूप का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है । कारण स्पष्ट है । पूर्वरूप का प्रथम रूप तो तद्गुण का ही विशिष्ट रूप है । इस तथ्य का सङ्क ेत स्वयं अप्पय्य दीक्षित ने भी दिया है । दूसरे रूप में वस्तु के विकृत या नष्ट होने पर अन्य वस्तु के सद्भाव से पुनः पूर्व अवस्था की अनुवृत्ति के वर्णन में ऐसा चमत्कार नहीं कि उसे स्वतन्त्र अलङ्कार माना जा सके । अन्य हेतु से पूर्वावस्था की अनुवृत्ति स्वतन्त्र - अलङ्कार नहीं । हिन्दी के अनेक रीति-आचार्यों ने अप्पय्य दीक्षित के मत का अनुसरण करते हुए पूर्वरूप का निरूपण किया है ।
उन्मीलित तथा विशेषक
मीलित और सामान्य के प्रतिपक्षी रूप में उन्मीलित तथा विशेषक अलङ्कार की कल्पना की गयी है । यह ध्यातव्य है कि सामान्य - प्रतिपक्षी विशेष अलङ्कार उस विशेष अलङ्कार से भिन्न है, जिसमें प्रसिद्ध आधार के अभाव में आधेय का वर्णन आदि होता है । एक ही अभिधान के दो अलङ्कारों की सत्ता मानने से अस्पष्टता की सम्भावना हो सक्ती है । अतः, कुछ आचार्यों ने सामान्य के विपरीत धर्मा अलङ्कार को विशेषक कहा है । सामान्य का प्रतिशब्द विशेष ही अधिक प्रसिद्ध है; पर उक्त कठिनाई से बचने के लिए विशेष के साथ स्वार्थिक 'क' लगा कर विशेषक अभिधान का प्रयोग अनुचित नहीं ।
जयदेव के पूर्व मीलित तथा सामान्य की कल्पना तो हो चुकी थी; पर उन्मीलित और विशेष या विशेषक की कल्पना नहीं हुई थी । जयदेव के अनुसार उन्मीलित वहाँ होता है, जहाँ दो वस्तुओं का भेद प्रकट हो जाता है । इसका •लक्षण मीलित- लक्षण - सापेक्ष है । मीलित की दशा के बाद उन्मीलित की दशा आती है । दो वस्तुओं के बीच भेद दिखाना अपने आपमें अलङ्कार नहीं । उन्मीलित का अलङ्कारत्व इस बात में है कि दो वस्तुओं में मीलित की दशाभेद परिलक्षित न होने की दशा —के बाद भेद प्रकट किया जाता है । इस वर्णन में कि 'तुम्हारे शुभ्र यश में डूबे हुए हिमालय को देवता उसकी शीतलता से ही समझ पाते हैं, पहले उज्ज्वल कीर्ति तथा उज्ज्वल हिमालय में भेद-प्रतीति · का अभाव दिखा कर पुनः शीतलता के कारण उनका भेद दिखाया गया है । ऐसे वर्णन में जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि उन्मीलित अलङ्कार मानेंगे ।
१. भेदवैशिष्ट्ययोः स्फूर्तावुन्मीलितविशेषको ।
- अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १४८