SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 637
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण भामह ने व्याजस्तुति की परिभाषा में कहा था कि जहाँ बहुत महनीय गुण वाली वस्तु के साथ तुलना करते हुए अपेक्षाकृत कम गुणवान् होने के कारण वर्ण्य वस्तु की निन्दा की जाय, वहाँ व्याजस्तुति होती है। इस प्रकार वर्ण्य की निन्दा भी उसकी प्रशंसा ही व्यजित करती है क्योंकि उसकी निन्दा महनीय गुणवान् के साथ उसकी तुल्यता दिखाने के उद्देश्य से की जाती है । वामन ने भामह की व्याजस्तुति-धारणा को सूत्रबद्ध कर उसके स्पष्टीकरण में कहा है कि विशिष्ट व्यक्ति के समान कर्म न कर सकने के कारण प्रस्तुत की निन्दा तो की जाती है; पर विशिष्ट के साथ उसके साम्य-सम्पादन की इच्छा से निन्दा होने के कारण वह निन्दा वस्तुतः उसकी स्तुति के लिए ही की जाती है। स्पष्ट है कि भामह तथा वामन निन्दामुखेन की जाने वाली स्तुति में व्याजस्तुति अलङ्कार मानते थे। आचार्य दण्डी ने भी निन्दामुखेन की जाने वाली स्तुति को ही व्याजस्तुति की प्रकृति माना है। उनके टीकाकार नसिंहदेव का मत है कि दण्डी के लक्षण-श्लोक में 'निन्दन्निव स्तौति' (निन्दा-सी करता हुआ जहाँ स्तुति करता है) का अर्थ प्रत्यय के व्यत्यय से 'स्तुवन्निव निन्दति' ( स्तुति-सी करता हुआ निन्दा करता है) भी माना जाना चाहिए। इस प्रकार मम्मट आदि के द्वारा स्वीकृत व्याजस्तुति के दो रूपों-निन्दामुखेन स्तुति तथा स्तुतिमुखेन निन्दा-को दृष्टि में रखकर दण्डी की परिभाषा में अव्याप्ति के मार्जन का आयास किया गया है। वस्तुतः, भामह, दण्डी, उद्भट, वामन आदि व्याजस्तुति का एक ही रूप-निन्दामुखेन स्तुति—मानते थे। अतः, उनके लक्षण में अर्थ की खींच-तान उचित नहीं। दण्डी ने जितने उदाहरण दिये हैं, उन सब १. दूराधिकगुणस्तोत्रव्यपदेशेन तुल्यताम् । किञ्चिद्विधित्सोर्या निन्दा व्याजस्तुतिरसौ यथा॥ -भामह, काव्यालङ्कार, ३,३१, २. सम्भाव्यविशिष्टकर्माकरणानिन्दा स्तोत्रार्था व्याजस्तुतिः । ___-वामन, काव्यालङ्कार-सूत्र ४,३,२४ द्रष्टव्य, उसकी वृत्ति पृ० २६६ ३. यदि निन्दनिव स्तौति व्याजस्तुतिरसौ स्मृता।। -दण्डी, काव्यादर्श, २,३४३ ४. अत्र 'निन्दन्निवस्तीतीति कथनात् प्रत्ययादि व्यत्ययेन स्तुवन्निन्दतीति इत्यप्यर्थो बोध्यः तेन स्तुतिच्छलेन निन्दोक्तिरपि व्याजस्तुतिः।। -वही, कृसुमप्रतिमा-टीका पृ० २५६,
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy