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________________ अलङ्कारों का पारस्परिक भेद |७० 'पर्याय और भाव पर्याय और भाव के स्वरूपगत भेद के सम्बन्ध में रुद्रट की मान्यता है कि भाव में वस्तुओं में कथित तथा व्यजित अर्थों में-जन्य-जनक-सम्बन्ध रहता है; पर पर्याय में दोनों में जन्य-जनक सम्बन्ध का अभाव रहता है। प्रथम भाव में व्यक्ति के शरीर का विकार उसके विशेष अभिप्राय की प्रतीति कराता है । ऐसी स्थिति में विकार कार्य होता है और भाव उस विकार का कारण । कार्य से कारणभूत अर्थ की प्रतीति होती है। इस प्रकार गम्य अर्थ-भाव विशेष जो विकार रूप कार्य का कारण है-का गमक अर्थ (विकार) के साथ जन्य-जनक सम्बन्ध रहता है। द्वितीय भाव में एक वस्तु का बोध अन्य वस्तु की प्रतीति का जनक होता है। पर्याय में एक अर्थ का अर्थान्तर के साथ जन्य-जमक सम्बन्ध नहीं रहता। इसमें वही अर्थ पर्याय से (भङ ग्यन्तर से ) कथित होता है। अभिप्राय-रूप अर्थान्तर की प्रतीति इसमें नहीं होती। जो प्रतीत होता है वही भङ ग्यन्तर से कथित भी।' पर्याय और सूक्ष्म __ सूक्ष्म में एक वस्तु का ज्ञान वस्त्वन्तर की प्रतीति का कारण होता है । इसमें प्रतिपाद्य अर्थ में युक्तिहीन अर्थ वाला शब्द अपने अर्थ से सम्बद्ध युक्तियुक्त अन्य अर्थ का बोध कराता है, पर पर्याय में एक ही अर्थ रहता है, जो प्रतीत भी होता है और पर्याय से कथित भी। अतः उसमें दो अर्थों में जन्य-जनके सम्बन्ध नहीं रहता। परिकर और परिकराङ कुर इन दोनों अलङ्कारों का स्वरूप साभिप्राय पद-प्रयोग की धारणा पर आधृत है। दोनों का मुख्य भेद यह है कि परिकर में साभिप्राय विशेषण का प्रयोग १. भावसूक्ष्मयोः पर्यायोक्तनिवृत्यर्थमाह-अजनकमजन्यं वेति । अयमर्थः प्रथमभावे विकारलक्षणेन कार्येण विकारवतोऽभिप्रायो यथा गम्यते तथा स्वजनकेन सह प्रतिबन्धश्चेति गमकस्य जन्यतास्ति । "इह ( पर्याये ) तु विवक्षितवस्तुप्रतिपादक वस्तु न तथाभूतम् । वाच्यवाचकभावशून्यमित्यर्थः। द्वितीयभावे हि वक्त रभिप्रायरूपमर्थान्तरं वाक्येन गम्यते ।... इह तु स एवार्थः पर्यायेणोच्यते । न त्वभिप्रायरूपमर्थान्तरप्रतीतिरिति । -रुद्रट, काव्यालङ्कार, ७,४२ पर नमिसाधु की टीका, पृ० २१५, २. .."सूक्ष्मे तु युक्तिमदर्थोऽपि शब्दोऽर्यान्तरमुपत्तिमद् गमयति । इह तु स एवार्थः पर्यायेणोच्यते। -वही, पृ० २१५
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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