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३६८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण है; कुछ परिवर्तन भ्रान्तिवश भी हो गया है ।' ऐसे भ्रान्तिमूलक तथा नवीनता-प्रदर्शनमूलक परिवर्तन अग्राह्य हैं। अतः, उनपर विशेष विचार की अपेक्षा नहीं।
प्रस्तुत अध्याय में हम चार मूल अलङ्कारों से लेकर शताधिक स्वीकार्य अलङ्कारों में से प्रत्येक के उद्भव से लेकर संस्कृत तथा हिन्दी-अलङ्कार-शास्त्र में उसके स्वरूप-विकास का अध्ययन प्रस्तुत करेंगे
यमक
भारतीय अलङ्कार-शास्त्र में उपलब्ध शब्दालङ्कारों में यमक प्रथम है। ऐतिहासिक दृष्टि से तो यह प्रथम है ही, समग्र शब्दालङ्कार-प्रपञ्च का उद्गमस्रोत होने के कारण महत्त्व की दृष्टि से भी प्रथम है। आचार्य भरत के द्वारा स्वीकृत एवं परिभाषित चार अलङ्कारों में यमक एकमात्र शब्दालङ्कार है । यद्यपि भरत ने शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार-वर्गों में अलङ्कारों का विभाजन नहीं किया था तथापि यमक के लक्षण से अन्य अलङ्कारों से इसका यह भेद स्पष्ट हो जाता है कि इसमें शब्द-सौन्दर्य पर बल दिया गया है, जब कि अन्य अलङ्कारों में अर्थ की चारुता का विचार है। अभिनवगुप्त ने यमक को शब्दालङ्कार कह कर भरत के शेष तीन अलङ्कारों से उसका भेद किया है। आचार्य भरत के अनुसार शब्द का अभ्यास अर्थात् शब्दावृत्ति यमक अलङ्कार है। एक शब्द की आवृत्ति ध्वनि-साम्य के कारण श्र ति-सुखद होती है। इस चारु श्र ति में ही इसका अलङ्कारत्व है। आचार्य भरत के यमक-लक्षण "शब्दाभ्यास' में वर्णावृत्ति तथा पदावृत्ति; दोनों की धारणा निहित थी।
भामह ने प्राचीन आचार्यों के पांच अलङ्कारों की चर्चा करते हुए भरत के चार अलङ्कारों के अतिरिक्त एक अनुप्रास का भी उल्लेख किया और वर्णाभ्यास को अनुप्रास का लक्षण मान लिया । ऐसी स्थिति में अनुप्रास और यमक की पृथक्-पृथक् सत्ता के प्रतिपादन के लिए यमक-परिभाषा से वर्णाभ्यास की धारणा को निकाल कर उसके क्षेत्र का सीमा-निर्धारण आवश्यक हो
१. हिन्दी के रीति-अलङ्कार-लक्षण में अनेकत्र ऐसी भ्रान्ति तथा नवीनता
प्रदर्शन के मोह का उल्लेख हमने किया है। द्रष्टव्य-प्रस्तुक ग्रन्थ
अध्याय ३ २. शब्दालङ्कारस्वरूपमाह शब्दाभ्यासस्तु यमकमिति ।
-भरत, ना० शा० अभिनव भारती, पृ० ३२६