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________________ अलङ्कारों का वर्गीकरण . . [ ३७१ स्वीकार की, और वामन के औपम्यमूलक अलङ्कारों की भी। उन दोनों के अतिरिक्त वास्तव और श्लेषमूलक अलङ्कार-वर्गों की भी कल्पना उन्होंने की है। रुद्रट के उक्त चार अलङ्कार-वर्गों में समान व्यपदेश के कुछ अलङ्कार दो वर्गों में परिगणित हैं। उत्तर, सहोक्ति और समुच्चय, वास्तव तथा औपम्य; दोनों वर्गों में रखे गये हैं। हेतु तथा विषम वास्तवमूलक भी माने गये हैं और अतिशयमूलक भी। उत्प्रेक्षा और पूर्व का उल्लेख औपम्यवर्ग में भी है और अतिशयवर्ग में भी। इस प्रकार उक्त सात अलङ्कारों के दो-दो मूल-तत्त्व रुद्रट ने माने हैं और पृथक-पृथक् मूल-तत्त्वों के आधार पर उन्होंने उनके अलग-अलग स्वरूप की कल्पना की है। इस प्रकार वास्तव-वर्ग के उत्तर, सहोक्ति और समुच्चय; औपम्य-वर्ग के क्रमशः उत्तर, सहोक्ति और समुच्चय से नाम्ना अभिन्न होने पर भी स्वरूप-दृष्ट्या भिन्न हैं। यह बात दो-दो वर्गों में आने वाले हेतु, विषम, उत्प्रेक्षा और पूर्व के सम्बन्ध में भी सत्य है। एक अलङ्कार के अलग-अलग वर्गों के आधार पर दो-दो स्वरूपों की अनावश्यक कल्पना उक्त वर्गीकरण की व्यावहारिक कठिनाई से बचने के लिए करनी पड़ी है। यह उस वर्गीकरण की सीमा है। अलङ्कारों के पूर्वनिरूपित स्वरूप का तत्तद् वर्गों में विभाजन ही वर्गीकरण की स्वस्थ पद्धति है। वर्ग के अनुरोध से अलङ्कार-विशेष के नवीन स्वरूप की कल्पना वर्गविभाजन के आधार की अशक्ति या अव्याप्ति का परिचय देती है। अतः, रुद्रट का उक्त वर्गीकरण सर्वथा पूर्ण तो नहीं; पर अलङ्कारों के मूल-तत्त्व का अन्वेषण कर उनके आधार पर अलङ्कार-वर्गों के निर्धारण का प्रथम महत्त्वपूर्ण प्रयास अवश्य है। रुय्यककृत वर्गीकरण-आचार्य रुय्यक का अलङ्कार-वर्गीकरण के क्षेत्र में महनीय योगदान है। उन्होंने सादृश्य, विरोध, शृङ्खला, न्याय (लोकन्याय तथा शास्त्र-न्याय ), और गूढार्थप्रतीति के आधार पर अपने अलङ्कारों का वर्गीकरण किया है। सादृश्य, विरोध आदि के पुनः कुछ उपखण्ड किये गये हैं। १. सादृश्यगर्भ-इस वर्ग में सब से अधिक अलङ्कार आते हैं। इसका मूल तत्त्व है साधर्म्य । साधर्म्य के तीन भेद हैं (क) भेदाभेदतुल्य-प्रधान (ख) अभेद-प्रधान और (ग) गम्यमानौपम्य ,
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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