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________________ “७६६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण किया जाता है। अतः, जहाँ प्रकृत वस्तु में अप्रकृत के ज्ञान की प्राप्ति सम्भावित हो, वहाँ अप्रकृत का निषेध और प्रकृत की स्थापना में विश्वनाथ के अनुसार, निश्चय अलङ्कार होगा। दण्डी ने ऐसे स्थल में तत्त्वाख्यानोपमा अलङ्कार माना था। अब प्रश्न है कि इसे निश्चयान्त सन्देह से अभिन्न क्यों न माना जाय, जिसमें सन्देह-स्थल में अन्ततः निश्चयात्मक ज्ञान हो जाता है ? विश्वनाथ का उत्तर है कि सन्देह में प्रमाता को द्वै कोटिक ज्ञान रहता है; पर निश्चय में प्रमाता को एक कोटिक तत्त्व का ही ज्ञान रहता है और वह अन्य के अन्यथा ज्ञान की सम्भावना कर प्रकृत वस्तु की स्थापना करता है।' "उदाहरणार्थ, भौंरा नायिका के मुख को कमल न समझ ले, इसलिए प्रमाता कमल का निषेध कर प्रकृत मुख की स्थापना करता है। यह निश्चय, निश्चय ही सन्देह से भिन्न है। इसमें प्रमाता को तो एककोटिक ज्ञान रहता ही है, अन्य को भी एककोटिक ज्ञान ही होता है, जिसके निषेध की आवश्यकता प्रमाता को जान पड़ती है। निश्चय और भ्रान्तिमान निश्चय में प्रमाता अन्य के प्रकृत वस्तु में अप्रकृत के ज्ञान का ( भ्रमात्मक ज्ञान का ) निवारण करने के लिए अप्रकृत का निषेध और प्रकृत की स्थापना • करता है, फिर भी निश्चय को भ्रान्तिमान् से अभिन्न मानने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए; क्योंकि निश्चय का सौन्दर्य केवल भ्रमात्मक ज्ञान दिखाने में * नहीं; अपितु अप्रकृत का निषेध कर प्रकृत की स्थापना करने में है ।२ निश्चय और अपह नुति निश्चय में अप्रकृत का निषेध तथा प्रकृत की स्थापना होती है, जबकि अपह्नति में प्रकृत का निषेध तथा अप्रकृत का स्थापन होता है। स्पष्टतः, निश्चय अपह्न ति से विपरीत स्वभाव का अलङ्कार है । 3 १. न ह्ययं निश्चयान्तसन्देहः, तत्र संशयनिश्चयोरेकाश्रयत्वेनावस्थानात् __ अत्र त भ्रमरादेः संशयो नायकादेनिश्चयः किञ्च, न भ्रमरादेरपि संशयः, एककोट्यधिके ज्ञाने तथा समीपागमनासम्भवात् । -विश्वनाथ, साहित्यदर्पण पृ० ६४६ २. अस्त नाम भ्रमरादेर्भ्रान्तिः, न चेह तस्याश्चमत्कारविधायित्वम्, अपित तथाविधनायकाद्य क्तेरेवेति सहृदयसंवेद्यम् । -वही, पृ० ६४६ ३. न चापह्न तिः, प्रस्तुतस्यानिषेधादिति""। वही पृ० ६५०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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