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सप्तम अध्याय
अलङ्कार और भाषा
अलङ्कारशास्त्र का भाषाशास्त्र से घनिष्ठ सम्बन्ध है। भाषाशास्त्र में भाषा की मूल प्रकृति का-शब्द-अर्थ के पारस्परिक सम्बन्ध का तथा शब्द, वाक्य आदि के स्वरूप का-अध्ययन किया जाता है तो अलङ्कारशास्त्र में शब्द-अर्थ के सुरुचि-पूर्ण विन्यास की विशेष भङ्गियों का अध्ययन किया जाता है । अलङ्कार, गुण, रीति, वृत्ति; शब्दशक्ति आदि का भाषाशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन एक -स्वतन्त्र शोधप्रबन्ध का विषय हो सकता है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हम प्रसङ्गानुरोध से केवल अलङ्कारों का भाषाशास्त्रीय दृष्टि से अध्ययन करेंगे।
उक्ति-भङ्गी के विभिन्न प्रकार अलङ्कार कहलाते है।' एक प्रकार की उक्तिभङ्गी से व्यक्त अर्थ अन्य उक्तिभङ्गी से व्यक्त अर्थ से कुछ वैलक्षण्य लिये रहता है। 'नेत्र कमल के समान सुन्दर है' इस उपमा में तथा 'नेत्र-कमल' इस रूपक में नेत्र और कमल का सादृश्य बताना कवि का उद्देश्य होता है; फिर भी दोनों उक्तियों का अर्थ अभिन्न नहीं माना जा सकता। प्रथम उक्ति में नेत्र और कमल का भेद तथा सादृश्य की दृष्टि से दोनों का अभेद अभीष्ट है। दो वस्तुओं में सादृश्य बताने के लिए दोनों के बीच कुछ सामान्य और कुछ विशेष की कल्पना आवश्यक होती है ।२ यदि दो वस्तुओं में किसी सामान्य की कल्पना न की जाय तो दोनों के सादृश्य की कल्पना ही सम्भव न हो और यदि दो वस्तुओं में केवल सामान्य ही कल्पित हो, किसी विशेष की १. अनन्ता हि वाग्विकल्पास्तत्प्रकारा एव चालङ्काराः ।
-आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, ३, ६३ की वृत्ति पृ० ५११ २. यत्र किञ्चित् सामान्यं कश्चिच्च विशेषः स विषयः सदृशतायाः ।
–रुय्यक के काव्यालङ्कार सूत्र संख्या ११ की वृत्ति में उद्ध त,पृ० २४