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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार - विषयक उद्भावनाएँ [ ३४९
गोकुल
गोकुल ने 'चेतचन्द्रिका' में रघुनाथ की प्रेमात्युक्ति- सहित उन्हीं के मतानुसार अर्थालङ्कार - निरूपण किया है । उनके अपह्नव ( अपह्नति और उत्प्र ेक्षा के योग से निर्मित ) को डॉ० रसाल ने उनकी नयी कल्पना माना है । पर यह विश्वनाथ के सापह्नवोत्प्रक्षा से अभिन्न है ।
चन्दन
चन्दन ने 'काव्याभरण' की रचना में अपने ऊपर संस्कृत एवं हिन्दी आचार्यों का ऋण स्वीकार किया है । उनका अलङ्कार - निरूपण मुख्यतः 'कुवलयानन्द " तथा 'भाषाभूषण' के अलङ्कार वर्णन पर आधृत है ।
रसिक गोविन्द
रसिक गोविन्द की दो रचनाएँ काव्यशास्त्र पर हैं और दोनों का नामकरण आचार्य ने अपने नाम के आधार पर किया है । 'रसिक - गोविन्द' में अलङ्कारों का निरूपण 'चन्द्रालोक', 'कुवलयानन्द' तथा 'भाषाभूषण' की पद्धति पर किया गया है । ' रसिक - गोविन्द - आनन्दघन' में विविध काव्याङ्गों के साथ अलङ्कारों का भी विवेचन किया गया है । इसमें अलङ्कारों का विवेचन गद्य में होने से विवेचन प्रौढ है । इसमें मम्मट, अप्पय्य आदि की अलङ्कार-धारणा के साथ हिन्दी के केशव आदि आचार्यों का भी अलङ्कार- विषयक मत गृहीत है । अलङ्कार - विषयक नवीन उद्भावना के नहीं होने पर भी विवेचन की प्रौढता में ही इस कृति का महत्त्व है ।
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उमेद राय
उमेद राय ने 'वाणी-भूषण' में 'चन्द्रालोक' तथा 'भाषा - भूषण' के आधार पर अलङ्कार-निरूपण करने की बात स्वयं कही है । २ शब्दालङ्कार में यमक का वर्णन अनुप्रास के अन्तर्गत किया गया है । संस्कृत में भी कुछ आचार्यों ने केवल अनुप्रास का सद्भाव स्वीकार कर यमक को उसी का एक प्रकार माना
१. 'काव्याभरण' किये प्रगट, भाषा कवि आधार ।
ग्रन्थ संस्कृत देखि मैं x × × × ॥ —चन्दन, काव्याभरण, पृ० १ २. नित चन्द्रालोक विचारि मान ।
• किये भाषा भूषण की समान ॥ - उमेद राय, वाणीभूषण, पृ० ३