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________________ अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण प्रक्रिया में अप्रस्तुत से प्रस्तुत के उत्कर्ष-साधन के स्वरूप पर हम एक उदाहरण लेकर विचार करें। काली आँखों की सुन्दरता से प्रभावित होकर जब कवि उन्हें नीलकमल के समान कहता है या उनपर नीलकमल का अभेदारोपण करता है तब भावक के हृदय में आँखों के बिम्ब के साथ नीलकमल का भी बिम्ब उद्भूत होता है। नीलकमल का वह बिम्ब, जिसके सौन्दर्य के प्रभावातिशय से भावक का हृदय परिचित रहता है, सादृश्य के कारण आँखों के सौन्दर्य के प्रभाव को भी उतना ही उत्कृष्ट बना देता है। इस प्रकार अप्रस्तुत के रूप, गुण, क्रिया आदि क्रमशः प्रस्तुत के रूप, गुण, क्रिया आदि का उत्कर्ष करते हैं। प्रस्तुत व्यापार-समष्टि के लिए भी कवि जहाँ अप्रस्तुत व्यापारसमष्टि की योजना करता है, वहाँ अप्रस्तुत योजना की सार्थकता प्रस्तुत व्यापारसमष्टि की प्रभाव-वृद्धि में ही होती है । जो अप्रस्तुत प्रस्तुत का उत्कर्ष करने में समर्थ न हों उनकी योजना व्यर्थ तो होती ही है, काव्य का भार बनकर काव्य के सहज सौन्दर्य को भी नष्ट कर देती है। अप्रस्तुत को प्रस्तुत का उत्कर्षसाधक मानने के कारण ही आचार्यों ने एकमत से अप्रस्तुत में प्रस्तुत की अपेक्षा अधिक गुण का सद्भाव स्वीकार किया है। अप्रस्तुत की योजना में कवि का अभिप्राय यही रहता है कि पाठक अप्रस्तुत के गुणाधिक्य से परिचित रहते हैं। अतः, वे अप्रस्तुत पाठक के हृदय में प्रस्तुत के रूप, गुण आदि का भी उत्कृष्ट प्रभाव जगाने में समर्थ होंगे। इसीलिए लोक-परिचित अप्रस्तुत की योजना ही वाञ्छनीय मानी गई है। प्रस्तुत के लिए कल्पित अप्रस्तुत के साथ प्रस्तुत का रूप, गुण, क्रिया आदि का भी साम्य हो सकता है और केवल प्रभाव का साम्य भी। प्रभाव-साम्य से अप्रस्तुत का प्रभाव प्रस्तुत के प्रभाव की वृद्धि करता है। प्रस्तुत के रूप, गुण, क्रिया आदि के उत्कर्ष-साधन या प्रभाववृद्धि के साथ अलङ्कार काव्य के भाव या रस का प्रभाव बढ़ाने में भी सहायक होते हैं । रससम्प्रदाय के आचार्यों ने तो रस-भाव आदि का उपकार करने में ही अलङ्कारयोजना की सार्थकता मानी है।' यह ठीक है कि सभी अलङ्कार नियत रूप से सदा रस, भाव आदि का उपकार नहीं करते ; वे कहीं तटस्थ रह जाते हैं तो १. रसभावादितात्पर्यमाश्रित्य विनिवेशनम् । अलङ कृतीनां सर्वासामलङ्कारत्वसाधनम् ॥-तथा ध्वन्यात्मभूते शृङ्गारे समीक्ष्य विनिवेशितः। रूपकादिरलङ्कारवर्ग एति यथार्थताम् ॥ -आनन्दवर्द्धन, ध्वन्यालोक, २८ तथा ४०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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