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________________ अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान [५ जो लौकिक उपमान दिया था, उसके साथ काव्यालङ्कार की पूर्ण सङ्गति बैठाने के प्रयास में कुछ लोग मम्मट की अलङ्कार-धारणा को ही अस्पष्ट कर बैठते हैं। काव्यालङ्कार के हार आदि आभूषण के समान होने का क्या तात्पर्य है ? इसका स्पष्टीकरण आवश्यक है। क्या हार का मनुष्य-शरीर के साथ जैसा अनित्य सम्बन्ध होता है, वैसा ही अनित्य सम्बन्ध काव्य के अलङ्कार का शब्द और अर्थ के साथ मम्मट मानते थे ? गले से हार उतारकर जितनी सरलता से लोग अलग रख देते हैं; क्या उतनी ही सरलता से काव्य की उक्ति से अलङ्कार को हटाकर दूर किया जा सकता है ? मम्मट-जैसे समर्थ समीक्षक के कथन की इतनी भोंड़ी व्याख्या की जाय तो मम्मट के प्रति अन्याय भी होगा और व्याख्याता की बौद्धिक दरिद्रता का परिचायक भी। अलङ्कार को हार आदि के समान कहने में मम्मट का तात्पर्य केवल इतना होगा कि जिस प्रकार हार आदि आभूषण प्रथमतः मनुष्य के शरीर को ही आभूषित करते हैं, फिर शरीर के माध्यम से कभी-कभी उसकी आत्मा का भी उपकार कर देते हैं-उसी प्रकार काव्य के अलङ्कार भी प्रथमतः काव्य के शब्दार्थ को ही भूषित करते हैं और उसके माध्यम से काव्य की आत्मा रस का भी यदा-कदा उपकार कर देते हैं । हार आदि लौकिक आभूषण से काव्य के अलङ्कार का इसी दृष्टि से सादृश्य है। ध्यातव्य है कि सादृश्य के लिए दो वस्तुओं में कुछ सामान्य तथा कुछ विशिष्ट की अपेक्षा होती है। दोनों में सर्वात्मना साम्य आवश्यक नहीं। __ अलङ्कार वाच्य का उपस्कार करते हैं । शब्दालङ्कार काव्य के शब्द का तथा अर्थालङ्कार काव्य के वाच्यार्थ का उपस्कार करते हैं। कथन की भङ्गी के चमत्कार या विच्छित्ति को काव्य का अलङ्कार मानने का यही तात्पर्य है। औपम्यगर्भ अलङ्कार में प्रस्तुत अर्थ के लिए जो अप्रस्तुत की योजना की जाती है उसमें कवि का एक उद्देश्य प्रस्तुत वस्तु के रूप, गुण, क्रिया का उत्कर्षसाधन भी होता है। प्रस्तुत के रूप, गुण आदि के उत्कर्ष के लिए कवि ऐसे अप्रस्तुत सामने ला देता है, जिसके उत्कृष्ट रूप, गुण आदि से पाठक परिचित रहता है। उस परिचित अप्रस्तुत की योजना से पाठक के हृदय में अप्रस्तुत का प्रभाव जगकर प्रस्तुत के प्रभाव को भी बढ़ा देता है। काव्यार्थ-भावन की १. यत्र किञ्चित् सामान्य कश्चिच्च विशेषः स विषयः सदृशतायाः। -रुय्यक, अलङ्कार सर्वस्व, पृ० २४ तथायत्र किञ्चित् सामान्यं कश्चिच्च विशेषः तत्रोपमानोपमेये भवतः । -पतञ्जलि, महाभाष्य, २, १, ३, पृ० ३६४
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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