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________________ ४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण कथन का प्रकार - विशेष ही अलङ्कार है । ' आनन्दवर्द्धन ने यह माना है कि वाग्विकल्प अर्थात् कथन के अनूठे ढंग अनन्त हैं और उनके प्रकार ही अलङ्कार कहलाते हैं । अभिनवगुप्त तथा पण्डितराज जगन्नाथ आदि ने भी कथन के निराले ढंग के प्रकार- विशेष को अलङ्कार माना है । इन आचार्यों की अलङ्कारधारणा का सार यह है कि कथन का चमत्कारपूर्ण ढंग - उक्ति की विच्छित्ति - ही अलङ्कार है । कथन की सुन्दर भङ्गियाँ असंख्य हैं, अतः अलङ्कारों की संख्या निश्चित नहीं की जा सकती । आचार्य मम्मट ने काव्यालङ्कार के स्वरूप तथा काव्य में उसके स्थान का निरूपण करते हुए कहा है कि 'काव्य के वे धर्भ जो काव्य के शरीरभूत शब्द एवं अर्थ को अलङ्कृत कर उसके माध्यम से काव्यात्मभूत रस का भी यदि काव्य में रस रहे तो — कदाचित् उपकार करते हों, अलङ्कार कहलाते हैं । वे अनुप्रास, उपमा आदि ( शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार) मनुष्य के हार आदि आभूषण की तरह काव्य के आभूषण होते हैं । '3 स्पष्ट है कि मम्मट ने अलङ्कार को काव्य के शरीरभूत शब्द और अर्थ का ही भूषण माना था, जो प्रकारान्तर से ही रस का यदा-कदा उपकार करता है । कहीं-कहीं तो अलङ्कार काव्य की आत्मा रस का न उपकार करते हैं न अपकार; पर कहीं-कहीं वे रस का अपकार भी कर देते हैं । शृङ्गार आदि कोमल रस के प्रसङ्ग में कठोर वर्णों का अनुप्रास रस का उपकार करने के बजाय उसका अपकार ही करेगा । विश्वनाथ ने मम्मट के मत का अनुसरण करते हुए अलङ्कार को काव्य काशब्द और अर्थ का - अस्थिर शोभातिशायी धर्म कहा है । वामन की तरह मम्मट आदि ने भी अलङ्कार को काव्य का शोभाधायक धर्म नहीं मानकर उसके सौन्दर्य की वृद्धि का ही साधन माना है । आचार्य मम्मट ने आलङ्कारिक भाषा में अलङ्कार का स्वरूप-निरूपण किया था । उन्होंने काव्य में अलङ्कार के कार्य एवं स्थान के स्पष्ट निर्धारण के लिए १. अभिधाप्रकारविशेषा एवालङ्काराः । — रुय्यक, अलं० सर्वस्वपृ० ८ २. अनन्ता हि वाग्विकल्पास्तत्प्रकारा एव चालङ्काराः । आनन्दवर्द्धनध्वन्या० ३, ३७ की वृत्ति पृ० ५११ ३. उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् । हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ॥ ४. शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्म्माः शोभातिशायिनः । रसादीनुपकुर्वन्तोऽलंकारास्तेऽङ्गदादिवत् 11 -मम्मट, काव्य प्र० ८,६७ - विश्वनाथ, साहित्य द० १०, १
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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