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________________ अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान [३ अवैज्ञानिक मान लिया था।' दूसरी ओर कुछ आचार्यों ने गुण और अलङ्कार का भेद स्पष्ट करने के लिए गुण को काव्य-सौन्दर्य का हेतु माना तो अलङ्कार को काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि करनेवाला धर्म ।२ इस मत के अनुसार अलङ्कार काव्य के शोभाधायक गुण नहीं, काव्य की स्वाभाविक शोभा की बृद्धि करनेवाले धर्म हैं। इस प्रकार इस मत के अनुसार अलङ्कार शब्द का —करण व्युत्पत्ति से-अर्थ होगा काव्य का वह तत्त्व जिससे काव्य अलङ कृत हो अर्थात् जिससे काव्य के सौन्दर्य की अभिवृद्धि हो।' प्रस्तुत सन्दर्भ में काव्य के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण रखनेवाले आचार्यों के द्वारा काव्यालङ्कार के स्वरूप के विषय में व्यक्त मान्यता का परीक्षण वाञ्छनीय है। भामह तथा उद्भट ने काव्य-शोभा के साधक धर्म को अलङ्कार मानकर गुण, रस आदि को भी अलङ्कार की सीमा में समेट लिया है । आचार्य दण्डी ने भी काव्य के शोभाकर धर्म को अलङ्कार कहा है। इस प्रकार उनके मत से भी गुण आदि काव्य-तत्त्व काव्य में सौन्दर्य का आधान करने के कारण अलङ्कार हैं। इन आचार्यों की अलङ्कार-परिभाषा इतनी सामान्य थी कि उससे गुण आदि से अलङ्कार का विशिष्ट स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पाता था। इसलिए वामन को यह स्पष्ट करना पड़ा कि काव्य-शोभा में वृद्धि करनेवाले धर्म अलङ्कार कहे जाते हैं । इस कथन में भी काव्य में अलङ्कार के कार्य पर ही प्रकाश डाला गया है। दूसरे वर्ग के आलङ्कारिकों ने कथन के चारुतापूर्ण प्रकार-विशेष को अलङ्कार का लक्षण माना है। वक्रोक्तिजीवितकार कुन्तक ने वक्रोक्ति कोकहने के वैदग्ध्यपूर्ण ढंग को-काव्य का अर्थात् शब्द और अर्थ का अलङ्कार कहा है। उनके पूर्ववर्ती भामह ने भी वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति को अलङ्कार का प्राणभूत तत्त्व माना था। रुय्यक अभिधान अर्थात् कथन के प्रकार-विशेष को अलङ्कार का स्वरूप मानते हैं। उनके अनुसार कवि-प्रतिभा से समुद्भूत १. ओजः प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि समवायवृत्त्या स्थिति रिति गड्डरिकाप्रवाहेणवेषां भेद: ।-उद्भट की यह मान्यता मम्मट ने उद्धृत की है। द्रष्टव्य, काव्यप्र.० ८, पृ० १६१ ।। २. काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः । तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः । -वामन काव्यालङ्कार सूत्र वृत्ति ३, १, १ तथा ३, १, २ ३. उभावेतावलङ्कायौं तयोः पुनरलङ कृतिः । वक्रोक्तिरेख बैदग्ध्यभङ्गीभणितिरुच्यते ॥ -----कुन्तक, वक्रोक्तिजी०, १, १०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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