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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
किसी गूढ आशय से ज्ञात निषेध का प्रतिपादन अर्थात् अप्राप्त का निषेध प्रतिषेध अलङ्कार है। इस अलङ्कार का चमत्कार निषेध में नहीं, निषेध से प्रकट होने वाले गूढ आशय में है । जगन्नाथ आदि परवर्ती आचार्यों ने प्रतिषेध का अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया है । जयदेव तथा अप्पय्य के द्वारा प्रतिषेध • के उक्त एक ही रूप की कल्पना की गयी है |
विधि
विधि को शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने स्वतन्त्र अलङ्कार माना है । विधि निषेध का विपरीतधर्मा है । ज्ञात का ही विधान विधि का स्वरूप माना गया है । ' ज्ञात का विधान किसी विशेष आशय को प्रकट करता है; अन्यथा वह व्यर्थ ही होगा । राम का यह कथन कि 'मैं राम हूँ' सिद्ध अर्थ का विधान है । यह कथन राम के व्यक्तित्व के विशिष्ट गुणों के निर्देश में सार्थक है, अन्यथा वे राम हैं; इस सिद्ध अर्थ के विधान का क्या प्रयोजन होता ? निष्कर्ष यह कि जहाँ सिद्ध अर्थ का विधान वक्ता के किसी विशेष आशय को उद्घाटित करे, वहाँ जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि के अनुसार विधि अलङ्कार होगा । विधि का भी एक ही रूप कल्पित हुआ । आदि परवर्ती आचार्यों ने इस अलङ्कार का निरूपण नहीं किया ।
जगन्नाथ
असम
असम शोभाकर मित्र के द्वारा कल्पित अलङ्कार है । वर्ण्य विषय को अद्वितीय बताने के लिए जहाँ कवि यह कल्पना करता है कि उसके समान कोई अन्य अर्थ नहीं है, वहाँ शोभाकर, जगन्नाथ आदि असम अलङ्कार मानते हैं। वर्ण्य का उत्कर्ष साधन अलङ्कार - योजना का एक प्रमुख उद्देश्य है । वर्ण्य को सर्वोत्कृष्ट प्रमाणित करने के लिए अनन्वय आदि की उक्तिभङ्गी पर प्राचीन आचार्यों ने भी विचार किया था । असम में भी वर्ण्य की सर्वोत्कृष्टता - का प्रतिपादन कवि का लक्ष्य रहता है; पर अनन्वय आदि से उसकी उक्ति - भङ्गी थोड़ी भिन्न होती है । असम में कवि वर्ण्य की अन्य वस्तु से उपमा का सर्वथा : निषेध करता है । निष्कर्षतः, जहाँ वर्ण्य के समान किसी अन्य वस्तु को न
१. सिद्धस्यैव विधानं यत्तमाहुर्विध्यलंकृतिम् । - अप्पय्य० कुवलया० १६६,
२. सर्वथैवोपमानिषेधे असमाख्योऽलङ्कारः ।
--जगन्नाथ, रसगङ्गावर, पृ० ३३२,