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अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४३७ तो है, पर साधर्म्य नहीं । यदि सादृश्य मात्र में उपमा का सद्भाव माना जाता तो उक्त उदाहरण में उपमा अलङ्कार ही माना जाता, उपमा- दोष नहीं । निष्कर्ष यह कि साधर्म्य का अर्थ है साधारण धर्म-सम्बन्ध | यह शब्द उपमेय के साथ धर्म के सम्बन्ध का; उसके उपमान के साथ समान धर्म के सम्बन्ध का तथा दोनों वस्तुओं (उपमेय एवं उपमान) के बीच समान-धर्मसम्बन्ध का बोध कराता है । साधर्म्य में ही उपमा होती है ।
रूपक
'नाट्य-शास्त्र' में उपलब्ध चार प्राचीनतम अलङ्कारों में से रूपक भी एक है | स्वरूपगत चारुता तथा कवि-परम्परा में प्राप्त प्रतिष्ठा की दृष्टि से उपमा के बाद रूपक का ही स्थान माना जाना चाहिए । हम देख चुके हैं कि काव्यशास्त्र में स्वभावोक्ति तथा अतिशयोक्ति या वक्रोक्ति को अलङ्कार में प्रथम स्थान दिलाने के भी प्रयास हुए हैं । ' स्वभावोक्ति का तो अलङ्कारत्व ही विवादग्रस्त रहा है । सर्वमान्य अलङ्कार नहीं होने के कारण स्वभावोक्ति को अलङ्कारों में प्रथम स्थान तो नहीं ही दिया जा सकता; द्वितीय स्थान में भी उसकी गगना नहीं की जा सकती । अतिशयोक्ति एक निश्चित सीमा में ही रुचिकर होती है । जहाँ कवि की कल्पना अतिशयोक्ति में खींच-तान आरम्भ करती है, वहाँ काव्य का प्रभाव जाता रहता है। अतिशयोक्ति पर आश्रित कवि की वह ऊहा बौद्धिक चमत्कार की सृष्टि भले करे, हृदय की संवेदना का उत्कर्ष नहीं कर पाती । अतः, अलङ्कार - विशेष के रूप में अतिश - योक्ति को उपमा, रूपक आदि की अपेक्षा अधिक महत्त्व देना उचित नहीं । रूपक में लाक्षणिक प्रयोग का सौन्दर्य निहित रहता है । काव्य में ऐसे प्रयोग का महत्व अनुपेक्षणीय है । अरस्तू के अनुसार लाक्षणिक प्रयोग का कौशल कवि-प्रतिभा को ईश्वर का महनीय वरदान है । २ भारतीय आचार्यों ने भी लक्षणा शक्ति को एवं उस पर आश्रित रूपक अलङ्कार को बहुत महत्त्वपूर्ण माना है | सभी आचार्यों के द्वारा रूपक की अलङ्कार रूप में स्वीकृति तथा उसकी सभेद विशद मीमांसा इस कथन का प्रमाण है । कवियों में भी रूपक
१. भामह ने अतिशयोक्ति या वक्रोक्ति को अलङ्कारसर्वस्व माना तो दण्डी स्वभावोक्ति को प्रथम निरूप्य समझा ।
2. But for the greatest thing is a gift for metaphor. For this alone cannot be learnt from others and is a sign of inborn power. - Aristotle. Poetics, chapter XXII.