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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
का पर्याप्त आदर रहा है। संस्कृत-साहित्य के कनिष्ठिकाधिष्ठित कवि कालिदास की उपमा में रुचि जितनी विख्यात है, हिन्दी-कवियों में मूर्धाभिषिक्त कवि तुलसीदास की रूपक में रुचि उतनी ही ख्यात है। ___ उपमा की तरह रूपक के स्वरूप के सम्बन्ध में भी आचार्यों में अधिक मतभेद नहीं रहा है। आचार्य दण्डी से लेकर आधुनिक आचार्य तक रूपक का प्रायः समान स्वरूप ही स्वीकृत होता रहा है। उसके लक्षण का शोधपरिष्कार विभिन्न आचार्य अपने-अपने मत के अनुसार अवश्य करते रहे हैं; पर उसके सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में उनकी धारणा प्रायः समान ही रही है। वह भारत की शास्त्रीय चिन्तन-प्रणाली की अपनी विशेषता रही है कि तत्त्व. निरूपण में एक-दूसरे से बहुलांशतः सहमत रहने पर भी विचारकों ने किसी परिभाषा को अन्वय-व्यतिरेक के कठोर निकष पर कस कर उसके औचित्य की परीक्षा की है तथा पूर्व-निरूपित परिभाषा में कुछ अव्याप्ति या अतिव्याप्तिदोष दिखा कर अपने मत से नवीन परिभाषा की स्थापना की है। पण्डितराज जगन्नाथ ने अप्पय्य की 'चित्र-मीमांसा' की अलङ्कार-परिभाषाओं का तर्क के तीक्ष्ण कुठार से जो खण्डन किया है, उसके पीछे अलङ्कारों के नवीन स्वरूप की कल्पना की अपेक्षा उनके प्राचीन रूप को ही अधिक उपयुक्त परिभाषा में प्रस्तुत करने की प्रेरणा प्रधान रूप में है । जगन्नाथ का उपमा, रूपक आदि की धारणा तद्विषयक प्राचीन धारणा से तत्त्वतः भिन्न नहीं है, फिर भी उन्होंने उन बलङ्कारों के निरूपण-क्रम में जो निविड तर्क-जाल बुना है, उसकी सार्थकता निर्दोष परिभाषा की स्थापना में ही है ।
आचार्य भरत ने रूपक अलङ्कार के लक्षण में अनेक द्रव्यों के अनुषङ्ग बादि से गुणाश्रित औपम्य का, रूप की निवर्णना से युक्त होना अपेक्षित माना है। उनके अनुसार रूपक स्वविकल्प से विरचित होता है तथा उसके तुल्यावयव लक्षण-युक्त होने तथा किञ्चित् सादृश्य से सम्पन्न होने के आधार पर दो रूप होते हैं।' अभिनव गुप्त ने अभिनव-भारती में यह सङ्कत दिया है कि समस्तवस्तुविषय तथा एक देश विवर्ति रूपक भेदों की कल्पना का मूल
१. नानाद्रव्यानुरागाद्य यंदौपम्यगुणाश्रयम् । रूपनिवर्णनायुक्त तद्र पकमिति स्मृतम् ॥
–भरत, ना० शा० १६,५७ तथा स्वविकल्पेन रचितं तुल्यावयवलक्षणम् । किञ्चित् सादृश्यसम्पन्नं यद् पं रूपकं तु तत् ।।-वही १६,५६