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________________ ६०४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण तत्त्व मानकर उसके स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकार किये जाने का .विरोध करते हैं, उसीका ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन यहाँ अभीष्ट है। रुद्रट के पूर्ववर्ती आचार्य भामह, दण्डी तथा उद्भट ने विरोध व्यपदेश से जिस अलङ्कार का निरूपण किया था उसके लिए विरोधाभास संज्ञा अधिक . अन्वर्थ होती। भामह ने विशेष चमत्कार उत्पन्न करने के लिए गुण, क्रिया आदि का विरुद्ध क्रिया से वर्णन विरोध का लक्षण माना था । वे विरोध को अतात्त्विक मानकर केवल उसका आभास ही अपेक्षित मानते थे। उद्भट ने इसी मत को स्वीकार किया था। दण्डी ने विरोध-लक्षण में विरुद्ध पदार्थों का • संसर्ग प्रदर्शन अपेक्षित माना था। इसी धारणा ने पीछे चलकर विरोधाभास से -स्वतन्त्र विरोध अलङ्कार को जन्म दिया। दण्डी ने विरुद्ध पदार्थों की सङ्घटना केवल विशेष चमत्कार की सृष्टि के लिए विरोध में मानी थी। टीकाकारों ने 'विशेष-दर्शनार्यव' के आधार पर दण्डी के विरोध-लक्षण का अर्थ यह माना है कि वास्तव विरोध के न होने पर भी केवल विशेष दिखाने के लिए विरुद्धसे लगने वाले पदार्थों की सङ्घटना विरोध ( वस्तुतः विरोधाभास ) है। वामन ने भी विरोधाभास को ही विरोध कहा है। रुद्रट ने सर्वप्रथम विरोधाभास या विरोधाभास-श्लेष से स्वतन्त्र विरोध अलङ्कार की कल्पना की और उसे अतिशयमूलक अलङ्कार माना । उनके अनुसार जहाँ परस्पर सर्वथा विरुद्ध पदार्थों की, एक ही समय एकत्र अवस्थिति दिखायी जाय, वहां विरोध अलङ्कार होता है।' दण्डी के विरोध से इसकी तुलना करने पर विरुद्ध पदार्थों के संसर्ग की धारणा दोनों में समान रूप से दीख पड़ती है। भेद इतना ही है कि दण्डी ने केवल विशेष-दर्शन के लिए विरुद्ध पदार्थों के संसर्ग की कल्पना अपेक्षित मानी थी। इस कथन में इस व्याख्या के लिए अवकाश था कि वे पदार्थगत विरोध को अतात्त्विक या विरोध का आभास मात्र मानते थे; पर रुद्रट ने विरोध में संसर्ग में आने वाले पदार्थों में तात्त्विक विरोध अपेक्षित माना है । भोज ने रुद्रट की विरोध-धारणा को स्वीकार कर अन्य आचार्यों के द्वारा स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकृत असङ्गति, प्रत्यनीक, अधिक तथा १. यस्मिन् द्रव्यादीनां परस्परं सर्वथा विरुद्धामाम् । एकत्रावस्थानं समकालं भवति स विरोधः ॥ -रुद्रट, काव्यालङ्कार ६, ३०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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