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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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विषम को विरोध का ही भेद मान लिया है।' मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि ने विरोध नाम से विरोधाभास का ही अस्तित्व स्वीकार किया है। वे विषम आदि में विरुद्ध पदार्थों की सङ्घटना का समावेश मानते हैं । अतः, विरोध-नामक स्वतन्त्र अलङ्कार उन्हें इष्ट नहीं। जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने भी विरोध का निरूपण नहीं किया है । पण्डितराज जगन्नाथ ने विरोध को अनेक अलङ्कारों को अनुप्राणित करने वाला तत्त्व मानकर स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में उसके अस्तित्व की कल्पना को असङ्गत बताया है। वस्तुतः विषम, असङ्गति आदि अनेक अलङ्कारों में विरोध का तत्त्व निहित रहता है। अतः, विरोध के पृथक् अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं। केवल रुद्रट, भोज तथा उनके कुछ अनुयायियों को विरोध का स्वतन्त्र अलङ्कारत्व मान्य है। परस्पर विरुद्ध पदार्थों की युगपत् एकत्र सङ्घटन विरोध का. लक्षण है।
असङ्गति
असङ्गति विरोधमूलक अलङ्कार है। यह कार्य-कारण-सम्बन्ध की असङ्गति पर अवलम्बित है । सामान्यतः, जहाँ कारण रहता है, वहीं उसके कार्य का जन्म होता है। दूसरे शब्दों में, कारण तथा उसका कार्य, दोनों समान-देशीय होते हैं; पर काव्य में जहाँ कारण से भिन्न देश में उसके कार्य की उत्पत्ति का चमत्कारपूर्ण वर्णन होता है, वहाँ असङ्गति अलङ्कार माना गया है। __ रुद्रट ने सर्वप्रथम असङ्गति अलङ्कार के स्वरूप का निरूपण किया। उन्होंने इसे अतिशयमूलक अलङ्कार माना है। असङ्गति को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है कि जहां एक ही समय कारण के अन्यत्र तथा उसके कार्य के अन्यत्र होने का स्पष्ट वर्णन हो, वहाँ असङ्गति अलङ्कार होता है।'
१. विरोधस्तु पदार्थानां परस्परमसङ्गतिः । असङ्गतिः प्रत्यनीकमधिकं विषमश्च सः ॥
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ३, २४ २. विस्पष्टे समकालं कारणमन्यत्र कार्यमन्यत्र ।
यस्यामुपलभ्येते विज्ञ यासङ्गतिः सेयम् ॥-रुद्रट, काव्यालङ्कार ;४८