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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
असङ्गतिको स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मानकर विरोध का एक : भेद मात्र स्वीकार किया है । हम इस पर तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि . विरोध को स्वतन्त्र अलङ्कार मानकर विषम, असङ्गति आदि को उसका भेद मानना युक्तिसङ्गत नहीं । विरोध को विषम, असङ्गति आदि का समान • रूप से व्यावर्त्तक धर्म ही माना जाना चाहिए । अतः असङ्गति को स्वतन्त्र अलङ्कार मानने वाले रुद्रट आदि की धारणा ही अधिक समीचीन जान पड़ती है । रुद्रट ने विरोध को अनेक अलङ्कारों का प्राणाधायक तत्त्व मानकर अलङ्कारों का वर्गीकरण नहीं किया था । इसलिए वे असङ्गति, विरोध आदि को अतिशयमूलक अलङ्कार मानते थे । पीछे चलकर जब विरोधमूलक अलङ्कारों का एक स्वतन्त्र वर्ग कल्पित हुआ तब असङ्गति को विरोध मूलक - अलङ्कार वर्ग में परिगणित किया गया ।
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मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने रुद्रट की तरह कारण और • कार्य का भिन्न देशत्व ही असङ्गति का लक्षण माना है ।'
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जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने असङ्गति को थोड़े परिष्कार के साथ परि“भाषित किया। उनके अनुसार जहाँ हेतु तथा कार्य का भिन्नदेशत्व विरुद्ध हो, वहाँ यदि उनके भिन्नदेशत्व का निबन्धन हो तो असङ्गति अलङ्कार होगा । यदि कार्यकारण का भिन्न देशगतत्व विरुद्ध न हो तो असङ्गति नहीं होगी । मेघ सजल हुए ( मेघ ने विष अर्थात् जल का पान किया ) और वियोगिनियाँ मूच्छित 'हुई' इस कथन में तो असङ्गति है, चूंकि विष पीने तथा मूच्छित होने; इस - कारण- कार्य का भिन्न देशत्व विरुद्ध है और उसका निबन्धन हुआ है; पर इस कथन में कि 'वह अपनी भ्र ूवल्ली को जितना वक्र बनाती है, उतना अधिक उसके कटाक्ष-वाण से मेरा हृदय घायल होता है' असङ्गति नहीं; क्योंकि धनुष को खींच कर टेढ़ा करने तथा हृदय के बिद्ध होने का ( कारण- कार्य का ) भिन्नदेशत्व विरुद्ध नहीं है, वही प्रसिद्ध है । निष्कर्ष यह कि जो कार्य-कारण एक देश में सामान्यतः रहते हैं, उनके भिन्न-देशस्व का रमणीय वर्णन असङ्गति अलङ्कार है । इसके अतिरिक्त असङ्गति के दो और रूपों की कल्पना जयदेव * तथा अप्पय्यदीक्षित ने की है - ( १ ) अन्यत्र करणीय कार्य को अन्यत्र कर देना
१. द्रष्टव्य, मम्मट, काव्यप्रकाश १०, १६१; रुय्यक, अलङ्कार सू० ४४; विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,६०