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________________ ७६६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण से अपेक्षाकृत अधिक रमणीय या चमत्कारपूर्ण होती हैं; किन्तु लोक की उक्तियों को काव्य के लिए सर्वथा अनुपयुक्त नहीं माना जा सकता। काव्य की उक्तियों की रमणीयता को भी लोकोत्तर कहने का तात्पर्य उसे लोकजीवन से सर्वथा विच्छि न मानने का नहीं है। काव्य में लोक-जीवन का भी चित्रण होता है; उसकी पुनःसृष्टि होती है। काव्य कवि की मानस-सृष्टि है। अतः उसमें चित्रित लोक-जीवन भी नया रूप धारण कर-लोकोत्तर बनकर-हमारे सामने आता है। तथ्य यह है कि कवि की मानस-सृष्टि लोकजीवन के सत्य के जितना निकट पहुँच पाती है, उतना ही अधिक उसका मूल्य होता है। कितनी ही लोकोक्तियाँ, लोक-प्रचलित कहावत और मुहावरे सरस कवि के काव्य में प्रयुक्त हुए हैं। अतः, चमत्कारवादी आचार्यों की यह धारणा–कि काव्य की सभी उक्तिभङ्गियों के मूल में अतिशय का तत्त्व रहना ही चाहिए, मान्य नहीं हुई। एक ओर जहाँ अलङ्कार आदि के अनाव में भी रससिद्ध कवि की सहज रसमय वाणी को काव्य माना गया, वहाँ दूसरी ओर काव्यालङ्कार के क्षेत्र में भी लोकोक्ति, स्वभावोक्ति आदि अलङ्कारों का अस्तित्व स्वीकृत हुआ। कवि के हृदय का भाव द्वग सदा अतिशय के तत्त्व का सहारा लेकर ही व्यक्त हो, यह आवश्यक नहीं। उसके 'भाव को सही-सही व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त अलङ्कारों में सदा लोकोत्तर 'चमत्कार या अतिशय का तत्त्व रहे; यह भी आवश्यक नहीं । इसीलिए अधिकांश आचार्यों ने अतिशय को कुछ ही अलङ्कारों का मूल तत्त्व स्वीकार किया, सभी अलङ्कारों का नहीं। स्पष्ट है कि सभी अलङ्कारों के मूल में अतिशय का तत्त्व मानकर उसके आधार पर अलङ्कारमात्र को मन के विस्तार की प्रक्रिया से सम्बद्ध मानने में दो मत हो सकते हैं। यदि अतिशयोक्ति या वक्रोक्ति का सामान्य अर्थ-वार्ता या कुशल-समाचार आदि की उक्ति से विलक्षण काव्यात्मक उक्ति अर्थ-माना जाय तब तो भामह आदि की इस मान्यता का औचित्य असन्दिग्ध है कि वक्रोक्ति सभी अलङ्कारों का प्राण है; पर विशिष्ट अर्थ में अतिशयोक्ति-बढ़ा-चढ़ा कर उक्ति-कुछ अलङ्कारों का ही मूल तत्त्व मानी जा सकती है। प्रस्तुत सन्दर्भ में अलङ्कार विशेष के स्वरूप को दृष्टि में रखकर उनके अर्थबोध की मानसिक प्रक्रिया पर विचार कर लेना वाञ्छनीय होगा। उपमा-ऐतिहासिक दृष्टि से उपमा प्रथम अलङ्कार है, जिसने सादृश्यमूलक अनेक अलङ्कारों को जन्म दिया है। कुछ आचार्यों ने तो केवल
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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