SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 818
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलङ्कार और मनोभाव [७६५. विषम आदि में विरूप वस्तुओं की घटना वाञ्छनीय मानी गयी है। मनोवैज्ञानिक तथ्य यह है कि किसी मनोभाव को उसका विरोधी मनोभाव और भी तीव्र करने में सहायक होता है। विरोधी रङ्ग के पट पर रेखा का रङ्ग अधिक उभरता है। चित्र-फलक जितना उज्ज्वल होता है काली रेखा उतनी ही अधिक निखरती है। मनोभाव की भी यही स्थिति होती है। किसी वस्तु की कोमलता की अनुभूति तब और अधिक तीव्र हो जाती है जब मन में उसके साथ ही किसी वस्तु की कठोरता की अनुभूति भी जगा दी जाती है। विचित्र आदि अलङ्कार में भी जहाँ इच्छित फल के प्रतिकूल कार्य का वर्णन-जैसे उन्नति पाने के लिए किसी के आगे झुकने आदि का वर्णन होता है, वहां कर्ता के आचरण की विचित्रता का बोध, उसकी इच्छा और क्रिया के विरोध से, पाठक के मन में तीव्रता के साथ उभर आता है। अतिशयमूलक अलङ्कार में तो कवि का स्पष्ट उद्देश्य ही यही रहता है कि वह वस्तु का सातिशय वर्णन कर उसके प्रति पाठक के मन में तीव्र भाव जगावे । स्मृति, भ्रान्ति, सन्देह आदि अलङ्कारों का सीधा सम्बन्ध तत्तत् मनोदशाओं से माना गया है। स्मृति आदि की मनोदशा का जो स्वरूप अलङ्कारशास्त्र के आचार्यों ने प्रतिपादित किया था वह आधुनिक मनोविज्ञान के विद्वानों को भी मान्य है। निष्कर्ष यह कि समग्रतः अलङ्कारों के स्वरूप में तत्तत् मनोभावों को तीव्र करने की धारणा आचार्यों के मन में अवश्य थी; पर अलङ्कार-विशेष को उन्होंने मनोभाव-विशेष के साथ सयुक्त नहीं किया था। मनोभाव-विशेष के साथ अलङ्कार-विशेष को जोड़ने का कोई भी प्रयास दोष-मुक्त नहीं होगा; साथ ही वह भारतीय अलङ्कारशास्त्र के मान्य मनीषियों के चिन्तन का विरोधी भी होगा। विभिन्न अलङ्कारों में अर्थबोध की तत्तत् मानसिक प्रक्रिया पर विचार किया जा सकता है। अलङ्कार उक्ति के विभिन्न प्रकार ही हैं। प्रत्येक उक्तिभङ्गी की अर्थग्रहण- प्रक्रिया कुछ विशिष्ट होती ही है । अतः, एक मूल तत्त्व पर आधृत अलङ्कारों के स्वरूप में भी पर्याप्त पारस्परिक भेद रहता है । इसपर हमने स्वतन्त्र अध्याय में विचार किया है । अलङ्कारों के विभिन्न वर्गों की कल्पना के लिए जो मूल तत्त्व आचार्यों ने स्वीकार किये हैं, उनमें अर्थबोध की विशिष्ट प्रक्रिया पर ध्यान रखा गया है। भामह, कुन्तक आदि ने वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति को सभी अलङ्कारों का मूल तत्त्व माना था। कुन्तक ने तो इसी आधार पर स्वभावोक्ति आदि को अलङ्कार-क्षेत्र से बहिष्कृत करने का भी प्रयास किया था। निश्चय ही काव्य की उक्तियाँ लोक की उक्तियों
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy