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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १६६ और हेतु लक्षणों के तत्त्वों से किया गया है। उत्तर का एक रूप विचार "लक्षण के आधार पर तथा दूसरा पृच्छा के आधार पर कल्पित है। अवसर के एक भेद का स्वभाव ओज गुण से मिलता-जुलता है तो उसके दूसरे भेद का स्वरूप उदारत्व गुण एवं युक्ति-लक्षण के तत्त्वों से निर्मित है।
रुद्रट की शब्दगत वक्रोक्ति की प्रकृति नवीन है। चित्र अलङ्कार के विविध रूपों की कल्पना का मूल दण्डी के यमक अलङ्कार के स्वरूप-विवेचन में पाया जा सकता है।
उनके औपम्य-वर्गगत नवीन व्यपदेश वाले अलङ्कारों में केवल प्रत्यनीक का स्वरूप सर्वथा स्वतन्त्र जान पड़ता है। शेष अलङ्कारों के स्वरूप की कल्पना प्राचीन मनीषियों के विचारों के आधार पर की गयी है। मत, उत्तर, 'भ्रान्तिमान, पूर्व, समुच्चय, स्मरण, प्रतीप, उभयन्यास तथा साम्य इसके निदर्शन हैं। हेतु. लक्षण तथा उपमा अलङ्कार के तत्त्वों से मत का; 'मिथ्याध्यवसाय लक्षण, आख्यान लक्षण तथा उपमा के तत्त्वों के मिश्रण से उत्तर का; भ्रमात्मक प्रतीति की दार्शनिक मान्यता पर आधृत भरत के विपर्यय लक्षण के तत्त्व के साथ उपमानोपमेय भाव के योग से भ्रान्तिमान् का; अतिशयोक्ति एवं उपमा अलङ्कारों के तत्त्वों से पूर्व का और पदोच्चय लक्षण, दीपक तथा उपमा अलङ्कारों के तत्त्वों के मेल से समुच्चय का स्वरूप निर्मित है। स्मरण अलङ्कार की रूप-रचना का आधार स्मृतिविषयक दार्शनिक सिद्धान्त है। प्रतीप की कल्पना दण्डी की उत्पक्षितोपमा के आधार पर, उभयन्यास की रचना भामह की प्रतिवस्तूपमा के आधार पर तथा साम्य की सर्जना उपमा तथा व्यतिरेक के आधार पर की गयी है। ___ अतिशयमूलक अलङ्कारों के एक वर्ग की कल्पना कर लेने पर रुद्रट ने अतिशयोक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं समझी। इस वर्ग के विशेष, अधिक, विषम, असङ्गति तथा पिहित अलङ्कारों के नाम-रूप सर्वथा नवीन हैं। तद्गुण का एक प्रकार-जिसमें संसर्ग होने पर एक वस्तु दूसरी वस्तु का गुण ग्रहण कर लेती है-नवीन है । इस वर्ग के नवीन अभिधान वाले अन्य अलङ्कार पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता के आधार पर कल्पित हैं। दृष्टान्त रूप में पूर्व, व्याघात, अहेतु आदि देखे जा सकते हैं। पूर्व का स्वरूप उद्भट के अतिशयोक्ति-भेद 'कार्यकारण-पौर्वापर्य' से मिलता-जुलता है। तद्गुण का एक प्रकार उद्भट की अतिशयोक्ति के 'भेदेनान्यत्व' भेद के आधार