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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४५५ उपमेय और उपमान अपरत्र क्रमशः एक दूसरे के उपमान और उपमेय' बन जाते हैं। आचार्य दण्डी ने उपमेयोपमा के इसी स्वरूप को स्वीकार कर उसे अन्योन्योपमा व्यपदेश दिया और उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं मान कर उसे उपमा का ही एक भेद स्वीकार किया। उद्भट ने उपमेयोपमा के लक्षण में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया कि इसमें दो वस्तुओं का पारस्परिक सादृश्य दिखाया जाता है, जिससे परिणामत: उन दो वस्तुओं से अन्य वस्तु के सादृश्य का अभाव सूचित होता है। आचार्य रुद्रट ने उपमेयोपमा के स्थान पर उभयोपमा शब्द का उल्लेख कर उसे उपमा का ही एक भेद माना है। उसकी परिभाषा में उन्होंने उद्भट की उपमेयोपमा-धारणा को स्वीकार कर कहा है कि इन दो वस्तुओं-उपमेय और उपमान के समान कोई अन्य वस्तु नहीं है, ऐसा मान कर जहाँ इन दोनों की क्रमशः एक दूसरे से समता दिखायी जाती हो, वहाँ उभयोपमा अलङ्कार माना जाता है। पण्डितराज जगन्नाथ ने भी उपमेयोपमा के लक्षण में 'तृतीय सादृश्य व्यवच्छेद' का उल्लेख आवश्यक समझा ।५ इस प्रकार उपमेयोपमा के सम्बन्ध में उद्भट, रुद्रट, जगन्नाथ आदि का मत भामह आदि के मत से मूलतः अभिन्न है, पर भद यह है कि जहां भामह ने इस अलङ्कार की परिभाषा में केवल दो वस्तुओं की पारस्परिक समता की चर्चा की, वहाँ उद्भट आदि ने उसमें 'अन्यसादृश्य व्यवच्छेद' के तत्त्व का उल्लेख भी आवश्यक समझा । अनन्वय में एक वस्तु से दूसरी किसी भी वस्तु की समता का अभाव बताया जाता है और उपमेयोपमा में दो वस्तुओं
१. उपमानोपमेयत्वं यत्र पर्यायतो भवेत् । उपमेयोपमां नाम ब्रवते तां यथोदिताम् ।।
-भामह, काव्यालं० ३, ३७ २. द्रष्टव्य, दण्डी, काव्याद० २, १८ । ३. अन्योन्यमेव यत्र स्यादुपमानोपमेयता। उपमेयोपमामाहुस्तां पक्षान्तरहानिगाम् ॥
-उद्भट, काव्यालं० सार सं० ५, २७ ४. वस्त्वन्तरमस्त्यनयोर्न सममिति परस्परस्य यत्र भवेत् ।
उभयोरुपमानत्वं सक्रममुभयोपमा सान्या ॥-रुद्रट, काव्यालं० ८, ९ ५. तृतीयसदृशव्यवच्छेदबुद्धिफलकवर्णनविषयीभूतं परस्परमुपमानोपमेयभावमापन्नयोरर्थयोस्सादृश्यं सुन्दरमुपमेयोपमा।
-जगन्नाथ, रसगंगा० पृ० ३०६ ।