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________________ ६७० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अन्य कोई वस्तु नहीं। उद्भट, रुद्रट तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने उपमेयोपमा की परिभाषा में 'तृतीयसादृश्य-व्यवच्छेद' का उल्लेख भी किया है।' जहाँ 'तृतीय-सादृश्य-व्यवच्छेद' विवक्षित नहीं हो, वहाँ तो उपमा मानी जायगी, जिसे ' परस्परोपमा आदि संज्ञा दी जा सकती है; पर 'तृतीय सादृश्य-व्यवच्छेद' विवक्षित होने पर उपमेयोपमा मानी जायगी। अतः, उद्भट, रुद्रट, जगन्नाथ आदि के मतानुसार 'तृतीय-सादृश्य-व्यवच्छेद' को उपमेयोपमा का व्यवच्छेदक धर्म माना जाना चाहिए। निष्कर्षतः, उपमा और उपमेयोपमा में भेद यह है कि : (क) उपमा में उपमेय का उपमान के साथ सादृश्य बताया जाता है। उपमेयोपमा में उपमेय और उपमान का परस्पर सादृश्य दिखाया जाता है । उपमेय को उपमान के सदृश कह देना उपमा के रूप-विधान के लिए पर्याप्त है; पर उपमेय को उपमान के सदृश कहकर पुनः उपमान को उपमेय के सदृश कहना उपमेयोपमा के विधान के लिए अपेक्षित है। (ख) उपमेयोपमा में उपमेय तथा उपमान का परस्पर सादृश्य दिखाने के लिए दो वाक्यों का प्रयोग आवश्यक होता है। एक वाक्य में उपमेय को उपमान के सदृश तथा दूसरे वाक्य में उपमान को उपमेय के सदृश बताया जाता है। उपमा में उपमेय का उपमान के साथ सादृश्य-निरूपण एक ही वाक्य में हो सकता है। (ग) उपमेयोपमा में दो वस्तुओं-उपमेय और उपमान-का परस्पर ‘सादृश्य-निरूपण तृतीय वस्तु के सादृश्य के निषेध में परिणत होता है; पर उपमा में एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ-उपमेय का उपमान के साथसादृश्य-निरूपण अन्य वस्तु के सादृश्य की सम्भावना का निषेध नहीं करता। उपमा और प्रतिवस्तूपमा प्रतिवस्तूपमा को भामह, दण्डी आदि आचार्यों ने उपमा का ही एक भेद माना है; पर अधिकांश आलङ्कारिकों ने उसे स्वतन्त्र अलङ्कार माना है। प्रतिवस्तूपमा औपम्य-गर्भ अलङ्कार तो है; पर उपमा से अभिन्न नहीं। उसके १. द्रष्टव्य - उद्भट, काव्यालङ्कार, ५,२७, रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८,६ (उभयोपमा) तथा जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३०६ २. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३०९-१०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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