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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६७१ विशेषाधायक अनेक तत्त्वों का निर्देश उपलब्ध है । उद्भट ने दो वाक्यार्थों में - सादृश्य-निरूपण की दृष्टि से प्रतिवस्तूपमा को उपमा के समान मानकर दोनों के दो भेदक तत्त्वों का सङ्केत दिया है - ( १ ) प्रतिवस्तूपमा में उपमेय और उपमान; दोनों के साथ — उपमेय वाक्य तथा उपमान वाक्य; दोनों में साधारण धर्म का उपादान होता है, जब कि उपमा में साधारण धर्म का एक ही बार निर्देश पर्याप्त माना जाता है । ( २ ) प्रतिवस्तूपमा में उपमावाची शब्द का प्रयोग नहीं होता, उपमा में 'इव' आदि वाचक शब्दों का प्रयोग होता है ( लुप्तोपमा में भले समास आदि के कारण वह वाचक शब्द लुप्त रहे ) । ' वामन ने भी वाक्यार्थोपमा से प्रतिवस्तूपमा का भेदनिरूपण उद्भट की पद्धति पर ही किया है । उनकी मान्यता है कि प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्यार्थ रहते हैं, जिनमें से एक उपमेय होता है और दूसरा उपमान; पर वाक्यार्थोपमा में उपमेय और उपमान -उपमेय वाक्य और उपमान वाक्य – अर्थ की दृष्टि से एक ही वाक्य बनते हैं । अतः, वाक्यार्थोपमा में एक वाक्यार्थ में उपमानोपमेय-भाव की कल्पना होती है; पर प्रतिवस्तूपमा में दो वाक्यार्थों में उपमानोपमेय-भाव कल्पित होता है, यह दोनों का पारस्परिक भेद हैं । उद्योतकार ने इस तथ्य को ही स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उपमा में वाक्यार्थों के बीच साधारण धर्म इव आदि वाचक शब्द से कथित होता है; पर प्रतिवस्तूपमा में वस्तु प्रतिवस्तु भावापन्न वाक्यार्थों में औपम्य सदा गम्य ही होता है । यह दोनों का भेद है । 3 मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि उपमा और प्रतिवस्तूपमा के स्वरूप के सम्बन्ध में एकमत हैं । जगन्नाथ ने प्रतिवस्तूपमा के भेदप्रधान तथा उपमा के भेदाभेद - तुल्यप्रधान होने के आधार पर भी दोनों का भेद निरूपण किया है । उपमा तथा प्रति
१. द्रष्टव्य – उद्भट, काव्यालङ्कार सारसंग्रह, १, ५१-५२ तथा उसकी विवृति पृ० १६ २. अत्र ( प्रतिवस्तूपमायां ) द्वौ वाक्यार्थी, एको वाक्यार्थ उपमायामिति भेदः । - वामन, काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति, पृ० २२३
३. न च "वाक्यार्थोपमायामतिव्याप्तिरिति वाच्यम् वस्तुप्रतिवस्तुभावापन्नसाधारणधर्मकं वाक्यार्थयोर्गम्यमौपम्यमित्यस्य विवक्षितत्वात् तत्र तु इवशब्देन वाच्यमेवेत्यदोषात् । — काव्यप्रकाश की उद्योतटीका, बालबोधिनी टीका में उद्धृत, पृ० ६३४
४. द्रव्य – जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० २४८-४९