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________________ ५० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण प्रतिपादन सामान्य है।' बस्तुओं का अलग-अलग धर्म दोनों में वैशिष्ट्य का आधान करता है। इसके विपरीत सामान्य में दोनों वस्तुओं के बीच वैशिष्ट्य के अभाव की विवक्षा से—गुण के साम्य की विवक्षा से दोनों की एक रूप में प्रतीति का वर्णन किया जाता है। रुद्रट ने इसे तद्गुण का एक रूप माना था।२ मम्मट ने रुद्रट के तद्गुण के प्रथम रूप को सामान्य के रूप में स्वीकार किया और द्वितीय रूप को तद्गुण माना। रुय्यक ने सामान्य के सम्बन्ध में ऐसी ही धारणा प्रकट की है। उन्होंने सूत्र में प्रस्तुत का अन्य अर्थात् अप्रस्तुत के साथ गुण-साम्य के कारण ऐकात्म्यप्रतीति का प्रतिपादन सामान्य का लक्षण माना है। विश्वनाथ की सामान्यधारणा मम्मट, रुय्यक आदि की धारणा से अभिन्न है।' .. जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित विशेष के परिलक्षित नहीं होने के वर्णन में सामान्य अलङ्कार मानते हैं।५ वस्तुओं के व्यावर्त्तक विशेष का अभाव ही सामान्य की मूल धारणा रही है। इस दृष्टि से अप्पय्य दीक्षित की उक्त परिभाषा मम्मट तथा रुय्यक की परिभाषा से अभिन्न सिद्ध होती है। पण्डितराज जगन्नाथ ने सामान्य-विषयक इस मान्यता को स्वीकार करने पर भी उसकी परिभाषा के परिष्कार का प्रयत्न किया है। उनके अनुसार जहाँ वस्तु के प्रत्यक्ष रहने पर भी अन्य वस्तु के साथ उसके गुणसाम्य के कारण उससे भिन्न रूप में उसकी (वर्ण्य वस्तु की) प्रतीति नहीं होती, वहां सामान्य अलङ्कार होता है। सामान्य में दो वस्तु प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत १. प्रस्तुतस्य यदन्येन गुणसाम्यविवक्षया । ऐकात्म्यं बध्यते योगात्तत्सामान्यमिति स्मृतम् ।।-मम्मट, काव्यप्र. १०,२०२ २. द्रष्टव्य-रुद्रट, काव्यालङ्कार, ६,२२ ३. प्रस्तुतस्यान्येन गुणसाम्यादैकात्म्यं सामान्यम् । –रुय्यक, अलङ्कार सू० ७१ ४. द्रष्टव्य-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०,११६ ।। ५. सामान्यं यदि सादृश्याद्विशेषो नोपलक्ष्यते । -अप्पय दीक्षित, कुवलयानन्द, १४७ ६. प्रत्यक्षविषयस्यापि वस्तुनो बलवत्सजातीयग्रहणकृतं तद्भिन्नत्वेनाग्रहणं सामान्यम् । -जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ. ८१५
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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