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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विभावना और विशेषोक्ति
विभावना और विशेषोक्ति एक दूसरे का विपरीतधर्मा है। विभावना में कारण के विना ही कार्य की उत्पत्ति का वर्णन होता है; पर इसके विपरीत विशेषोक्ति में समग्र या अबाधित कारण के रहने पर भी फल की उत्पत्ति न होने का वर्णन होता है। अलङ्कारसर्वस्वकार ने दोनों के स्वभाव का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि विभावना में हेतु का प्रत्यक्षतः निषेध रहता है; पर वस्तुतः वह हेतु का अभाव फलोत्पत्ति की बाधा में ही परिणत होता है, यद्यपि प्रत्यक्षतः हेतु के विना फलोत्पत्ति कथित रहती है। इसके विपरीत विशेषोक्ति में प्रत्यक्षतः तो समग्र हेतु का सद्भाव, फिर भी फलोत्पत्ति का अभाव वर्णित होता है; पर तत्त्वतः वह फलाभाव कारण-समग्रता की बाधा के रूप में ही प्रतीत होता है।' विभावना और विशेषोक्ति का परस्पर विपरीत स्वभाव सर्वसम्मत है। अप्रस्तुतप्रशंसा और अपह नुति
अप्रस्तुतप्रशंसा में प्रस्तुत का उपादान नहीं होता। अप्रस्तुत के कथन से ही प्रस्तुत की प्रतीति करायी जाती है; पर अपह्न ति में प्रस्तुत का निषेध और उसकी जगह अप्रस्तुत की स्थापना की जाती है । अप्रस्तुतप्रशंसा और पर्यायोक्त
'अलङ्कारसर्वस्व' में यह प्रश्न उठाया गया है कि यदि कार्य के वर्णन से कारण की प्रतीति में भी अप्रस्तुतप्रशंसा मानी जाती है (जैसा कि रुय्यक आदि ने माना है) तो पर्यायोक्त में जहाँ किसी व्यक्ति के कार्य का वर्णन कर कारणभूत अर्थ की प्रतीति करायी जाती है, उसमें भी अप्रस्तुतप्रशंसा ही मानी जाने लगेगी। दोनों का भेदक क्या रह जायगा? इस शङ्का का समाधान यह कह कर किया गया है कि कार्य से कारण की प्रतीति तो उक्त दोनों अलङ्कारों में होती है, पर दोनों का भेद यह है कि पर्यायो क में कार्य मुखेन कारणभूत अर्थ
१. कारणाभावेन चेह (विभावनायां ) उपक्रान्तत्वाद् बलवता कार्यमेव
बाध्यमानत्वेन प्रतीयते, न तु तेन तत्र कारणाभावः । विशेषोक्तौ कार्याभावेन कारणसत्ताया एव बाध्यमानत्वमुन्नेयम् । -रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० १५२ तथा—विभावनां लक्षयित्वा तद्विपर्ययस्वरूपां
विशेषोक्तिं लक्षयति ।-वही, पृ० १५५