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________________ अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [७०७ का ही भङ ग्यन्तर से कथन होता है, इसलिए उसमें कार्य भी कारण की तरह वर्ण्य होने से प्रस्तुत ही रहता है, जब कि अप्रस्तुतप्रशंसा में वर्णित कार्य अप्रस्तुत होता है और उससे प्रतीत होने वाला कारणभूत अर्थ ही प्रस्तुत होता है।' पण्डितराज जगन्नाथ ने उक्त विभाग को अस्वीकार कर दोनों में इस आधार पर भेद-निरूपण किया है कि अप्रस्तुतप्रशंसा में वाच्यार्य व्यङ ग्यार्थ की प्रतिपत्ति में सहायक होता है; पर पर्यायोक्त में इसके विपरीत व्यङ ग्यार्थ ही वाच्यार्थ की प्रतिपत्ति में सहायक होता है। यही मत अधिक स्पष्ट तथा युक्तिपुष्ट जान पड़ता है। अप्रस्तुतप्रशंसा और अतिशयोक्ति अतिशयोक्ति में विषय का निगरण होने से उसका उपादान नहीं होता और अप्रस्तुत से ही प्रस्तुत का बोध कराया जाता है । रूपकातिशयोक्ति में केवल विषयी का ही उपादान होता है। अप्रस्तुतप्रशंसा में भी अप्रस्तुत का ही वर्णन होता है और उससे प्रस्तुत अर्थ की प्रतीति होती है; पर दोनों में मुख्य भेद यह है कि अतिशयोक्ति में अप्रस्तुत का कथन होने पर लक्षणा शक्ति से अन्य प्रस्तुत अर्थ का बोध होता है, जब कि अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत अर्थ के कयन से व्यञ्जना-वृत्ति से प्रस्तुत अर्थ की प्रतीति होती है। अतिशयोक्ति में अप्रस्तुत वाच्य और प्रस्तुत लक्ष्य होता है; पर अर्थान्तरन्यास में अप्रस्तुत वाच्य और प्रस्तुत व्यङग्य । 'धरती पर यह चन्द्रमा है' अतिशयोक्ति के इस उदाहरण में चन्द्रमा का धरती पर होना अर्थ अनुपपन्न होकर सादृश्यमूला गौणी लक्षणा से 'मुख' अर्थ का बोध कराता है। अप्रस्तुतप्रशंसा में कथित अप्रस्तुत अर्थ अपने आप में पूर्ण तथा उपपन्न रहता है और उससे व्यञ्जनावृत्या अन्य (प्रस्तुत) अर्थ की भी प्रतीति होती है। पण्डितराज जगन्नाथ ने इसी आधार पर उक्त अलङ्कारों का भेद-निरूपण किया है। १. एवञ्च यत्र वाच्योऽर्थोऽर्थान्तरं तादृशमेव स्वोपस्कारकत्वेनागूरयति, तत्र पर्यायोक्तम् । यत्र पुनः स्वात्मानमेवारस्तुतत्वात् प्रस्तुतमर्थान्तरं प्रति समर्पयति तत्राप्रस्तुतप्रशसेति निर्णयः ।-रुय्यक, अलं० सर्व० पृ० १२६ २. अस्मिंश्चालङ्कारे ( पर्यायोक्तालङ्कारे ) व्यङ ग्यं वाच्यपरम्, अप्रस्तुत प्रशंसायां तु वाच्यं व्यङ ग्यपरम्"।-जगन्नाथ, रसगङ्गा० पृ० ६५७ ३. तत्र (अतिशयोक्तौ) हि वाच्यतावच्छेदकरूपेण लक्ष्यस्य प्रतीतिरिह ( अप्रस्तुतप्रशंसायां) तु वाच्यताटस्थ्येनार्थान्तरस्येति विशेषात् ।....... किंचाप्रस्तुतप्रशंसायां प्रस्तुतं व्यङ ग्यमिति निर्विवादम् । निगीर्याध्यवसाने तु लक्ष्यं स्यात् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ६४८-४६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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