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अलङ्कारों का स्वरूप- विकास
[ ५७३ साभिप्राय प्रयोग के चमत्कार के आधार पर परिकराङ कुर को भी अलङ्कार माना ही जाना चाहिए ।
हिन्दी रीति-शास्त्र में जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित की अलङ्कार- विषयक मान्यता का अनुसरण करने वाले अनेक आचार्यों ने परिकराङकुर का लक्षणनिरूपण किया है । महाराज जसवन्त सिंह, मतिराम, भूषण, रघुनाथ, दूलह, भिखारीदास आदि आचार्यों ने परिकराङ कुर का विवेचन किया है; किन्तु. किसी आचार्य ने परिकराङ कुर के स्वरूप के सम्बन्ध में कोई नवीन धारणा प्रकट नहीं की । 'चन्द्रालोक' तथा 'कुवलयानन्द' में दिये गये परिकराङ, कुर-लक्षण का ही भावानुवाद हिन्दी में होता रहा । परिकराङंकुर के स्वरूप में एकरूपता बनी रही । साभिप्राय विशेष्य का प्रयोग उसका सर्वमान्य लक्षण स्थापित हुआ ।
उत्तर
उत्तर अलङ्कार के दो रूपों की कल्पना रुद्रट ने की । उनके अनुसार जहाँ उत्तर सुनकर पूर्ववचन का अर्थात् प्रश्न का निश्चय हो, वहाँ उत्तर अलङ्कार का एक रूप और जहाँ प्रश्नपूर्वक उत्तर का उल्लेख हो, वहाँ उत्तर का दूसरा रूप होगा । ' उत्तर सुनकर प्रश्न के उन्नयन में हेतुहेतुमद्भाव का निबन्धन उत्तर में नहीं होता; अतः इसे अनुमान से अभिन्न मानने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए । अनुमान अलङ्कार में हेतुहेतुमद्भाव का निबन्धन आवश्यक होता है । अब प्रश्न यह है कि उत्तर सुनकर प्रश्न के उन्नयन में तो उक्ति की विशेष भङ्गा होने से अलङ्कारत्व माना जा सकता है; पर प्रश्न और उसके उत्तर के - उल्लेख में अलङ्कारत्व मानने में क्या युक्ति होगी ? रुद्रट की उत्तर - परिभाषा - को देखते हुए इस प्रश्न का उत्तर यह दिया जा सकता है कि कवि-प्रतिभा से निबद्ध प्रश्न तथा उसका उत्तर चमत्कारपूर्ण होने के कारण अलङ्कार माना जाता है । एक ही साथ प्रश्न और उत्तर के निबन्धन की विशेष भङ्गी में रुद्रट ने उत्तर अलङ्कार का एक रूप माना है । औपम्यगर्भ - उत्तर के लक्षण में " कहा गया है कि जहाँ वक्ता उपमेयभूत वस्तु के सम्बन्ध में पूछे जाने पर उसके सदृश उपमानभूत वस्तु बतावे, वहाँ उत्तर होता है | २
१. उत्तरवचनश्रवणादुन्नयनं यत्र पूर्ववचनानाम् ।
क्रियते तदुत्तरं स्यात्प्रश्नादप्युत्तरं यत्र ॥ - रुद्रट, काव्यालं ० ७,६३
२. यत्र ज्ञातादन्यत्पृष्टस्तत्त्वेन वक्ति तत्त ल्यम् ।
सख्यार्तेन तदुत्तरं ज्ञेयम् ॥-वहीं, ८,७२