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५७२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण के अनेक रूपों के आधार पर परिकर के निम्नलिखित भेदों की कल्पना की है-क्रियापरिकर, कारकपरिकर, सम्बन्धिपरिकर, साध्यपरिकर, दृष्टान्त* परिकर, वस्तुपरिकर, कृत्तद्धित आदि से क्रियापरिकर, अव्ययपरिकर, कृत्
या कृदर्थरूप क्रिया-विशेषणपरिकर, सम्बोधनपरिकर, लक्षणपरिकर, हेतु'परिकर, सहार्थपरिकर, तादर्थ्यपरिकर, तथा उपपदपरिकर । यदि शब्दादिभङ्गी से अलङ्कारों के साधर्म्य-प्रतिपादन में भी परिकर मानें तो उसके असंख्य भेद हो जाते हैं। एकावली को परिकर में अन्तभुक्त मान कर भोज ने शब्द• एकावली, अर्थ-एकावली तथा उभय-एकावली भेद किये हैं।' एकावली के इन रूपों को परिकर-भेद नहीं माना जाना चाहिए । परिकराङ कुर
परिकर के स्वरूप के आधार पर ही परिकराङ कुर अलङ्कार के स्वरूप • की कल्पना की गयी है। परिकर में विशेषण का साभिप्राय होना अपेक्षित माना गया था। रुद्रट, भोज आदि आचार्यों ने साभिप्राय विशेषण वाले परिकर के अनेक रूपों की कल्पना करने पर भी विशेष्य के साभिप्राय प्रयोग के चमत्कार पर विचार नहीं किया था। सर्वप्रथम जयदेव ने 'चन्द्रालोक' में • परिकराङ कुर अलङ्कार की कल्पना की और साभिप्राय विशेष्य के प्रयोग को इसका लक्षण माना ।
अप्पय्य दीक्षित ने साभिप्राय विशेषण-रूप परिकर का निरूपण कर परिकराङकुर का निरूपण किया और उसमें जयदेव के अनुसार साभिप्राय विशेष्य का प्रयोग अपेक्षित माना। अप्पय्य दीक्षित के परवर्ती जगन्नाथ आदि ने परिकराङ कुर का निरूपण नहीं किया है। सम्भवतः, उन्हें परिकराङकुर का अलङ्कारत्व मान्य नहीं था। परिकराङ कुर में विशेष्य के साभिप्रायत्व का चमत्कार रहता है। अतः, यदि विशेषणों के साभिप्रायत्व के चमत्कार के आधार सर परिकर को अलङ्कार माना जाता है तो विशेष्य के
१. द्रष्टव्य-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, पृ० ४३३-४८ २. साभिप्राये विशेष्ये तु भवेत् परिकराङ कुरः ।
-जयदेव, चन्द्रालोक, ५,४० ३. साभिप्राये विशेष्ये तु भवेत् परिकराङ कुरः ।
-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, ६३