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________________ अलङ्कारों का स्वरूप - विकास [ ५७१ अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी मूल धारणा रुद्रट को धारणा के सामान ही है । परिभाषा में उन्होंने कहा है कि जहाँ क्रिया तथा कारक - सम्बन्धी साध्य या दृष्टान्त-भूत वस्तु का क्रिया-पद आदि से उपस्कार हो, वहाँ परिकर होता है ।' निष्कर्ष के रूप में टीकाकार जगद्धर ने साभिप्राय विशेषण के साथ विशेष्य के कथन को भोज - सम्मत परिकर - लक्षण माना है ।२ परिकर के सम्बन्ध में अन्य आचार्यों के मत का उल्लेख करते हुए भोज ने लिखा है कि उपमा, रूपक आदि अलङ्कारों का शब्द, अर्थ तथा शब्दार्थोभय भङ्गी से साधर्म्य दिखाना कुछ लोगों के अनुसार परिकर है । ऐसा परिकर - लक्षण किसी मान्य आलङ्कारिक द्वारा नहीं दिया गया है । सम्भव है कि भोज ने अपने समय के किसी गौण आचार्य का मत उद्धत कर दिया हो, जिसका मत अलङ्कारशास्त्र में महत्त्व ही नहीं पा सका है । भोज एकावली का भी परिकर में अन्तर्भाव मानते हैं । यह मान्यता उचित नहीं । एकावली में परिकर की तरह केवल विशेषण - विशेष्य-भाव का चमत्कार नहीं रहता, उसमें विशेषण - विशेष्य की माला का — उसकी निश्चित क्रम बद्ध योजना का सौन्दर्य रहता है । अतः, - दोनों अलग- अलग अलङ्कार हैं । मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि सभी परवर्ती आचार्य साभिप्राय विशेषण के साथ विशेष्य के कथन को परिकर का लक्षण मानने में एकमत हैं । स्पष्ट है कि परिकर के स्वरूप में विकास की स्थितियाँनहीं आयी हैं । उसका स्वरूप रुद्रट से लेकर मौलिक अलङ्कारशास्त्रीय चिन्तन के उत्तर काल तक एक-सा ही रहा है । परिकर-भेद वस्तुओं के द्रव्य, गुण, जाति तथा क्रिया रूपों के आधार पर परिकर के चार भेद रुद्रट ने किये थे । भोज ने विशेषित होने वाली वस्तु तथा विशेषण १. क्रियाकारकसम्बन्धिसाध्यदृष्टान्तवस्तुषु । क्रियापदाद्य पस्कारमाहुः परिकरं बुधाः ॥ — भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ४, ७२ २. साभिप्रायविशेषणेन विशेष्योक्तिः परिकर इति लक्षणम् । ३. द्रष्टव्य - वही ४, ७५ ४. द्रष्टव्य - वही, पृ० ४४६ वही, जगद्धर की टीका, पृ० ४३३
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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